मानसिकता में परिवर्तन की प्रतीक्षा करता भारत, हमें घिसे-पिटे जुमले की प्रवृत्ति का करना होगा परित्याग
To buy our online courses: Click Here
परिवर्तन का सबसे उल्लेखनीय स्वरूप वही है, जिसकी ओर आपने कभी ध्यान न दिया हो। बहरहाल यह बात केवल आम लोगों तक ही सीमित नहीं कि यकायक आए बदलाव को देखकर वे हैरत में पड़ जाते हैं। निजी क्षेत्र और यहां तक कि सरकारें भी अक्सर उसे समय से भांप नहीं सकतीं। इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। लोकतंत्र अति-आत्मविश्वास वाली सरकारों के आख्यानों से भरा पड़ा है, जो इससे बेखबर रहती हैं कि उनके पैरों तले जमीन न जाने कब खिसक गई। आसमान में भले ही चक्रवात का कहर हो या जमीन पर भूकंप की तबाही, लेकिन बहुमत वाली सरकारों के कानों पर तब तक जूं नहीं रेंगती, जब तक कि सुधारवादी कदम उठाने में बहुत ज्यादा देरी न हो जाए। साल 1977 में हुए चुनाव इस ग्रंथि को समझने का सबसे सटीक उदाहरण हैं। श्रीमती इंदिरा गांधी को कभी भनक ही नहीं लगी कि आपातकाल के दौरान भारत का मानस आखिर कैसे बदल गया। वहीं यह बात उनकी अनुवर्ती जनता पार्टी सरकार पर भी उतनी ही सही साबित होती है, जो 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी से चारों खाने चित हो गई थी।
कोविड महामारी के अनुभव बहुत दुखद रहे
कोविड महामारी के अनुभव बहुत दुखद रहे। मौत के अचानक दिखे रौद्र रूप से लोगों के दिल टूट गए। दिमाग जड़वत हो गए। परिवार के परिवार अथाह दर्द के सागर में डूब गए। एक अबूझ बीमारी ने उन्हें खौफजदा कर दिया। इसने जीवन के अप्रत्याशित स्वरूप को लेकर कई सवाल उठाए। इससे भावनात्मक एवं मानसिक उथल-पुथल का होना स्वाभाविक है। शायद ही कोई ऐसा शख्स हो जो अपने प्रियजन के असमय निधन या फिर उपचार की भयावह प्रक्रिया वाली पीड़ा से न गुजरा हो।
महामारी ने शब्दों और कहावतों के मायने बदल दिए
इस सामूहिक इम्तिहान का एक परिणाम यह भी रहा कि इसने शब्दों और कहावतों के मायने बदल दिए। आखिर मार्च 2020 से पहले तक कितने भारतीय ‘पॉजिटिविटी रेट’ का अर्थ समझते थे? आज अखबार की सुर्खियों में रोजाना इसका इस्तेमाल हो रहा है। करीब सवा साल पहले तक देश में अकादमिक तबके, शोधार्थियों और केंद्र-राज्यों के तमाम वित्त मंत्रालयों के आंतरिक गलियारों को छोड़कर आम आदमी का सांख्यिकी या आंकड़ों से कोई खास सरोकार नहीं था। अब खबरों की तलाश करता कोई भी व्यक्ति आंकड़ों पर जरूर गौर करने लगा है, जिसके आधार पर वह उस महामारी की तीव्रता का अनुमान लगाता है, जो नए-नए स्वरूप में सिर उठाने पर आमादा है।
दहाई के आंकड़े में दाखिल हुई मुंह फुलाती महंगाई पर किसी ने नहीं किया गौर
सभी सरकारें आंकड़ों से चिपकी हुई हैं। यह सही और एकदम उचित भी है। हालांकि उन्हें एक और आंकड़े पर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए, जो अखबार के पहले पन्ने की सुर्खियों में जगह पाता जा रहा है। यह आंकड़ा लगातार बढ़ती हुई महंगाई या मुद्रास्फीति की दर से जुड़ा है। यह इस किस्म का परिवर्तन है, जो किसी भी दिग्गज की गद्दी खिसकाकर अफरा-तफरी मचा सकता है। किसी ने भी पिछले पांच महीनों से मुंह फुलाती महंगाई पर तब तक गौर नहीं किया, जब तक कि वह दहाई के आंकड़े में दाखिल नहीं हुई। गत वर्ष मई में मुद्रास्फीति दर नकारात्मक थी। इस साल अप्रैल में थोक मूल्य सूचकांक यानी डब्ल्यूपीआइ 10.49 प्रतिशत तक चढ़ गया। मई में यह और बढ़कर 12.94 प्रतिशत यानी तकरीबन 13 प्रतिशत के दायरे में आ गया। वहीं आम जरूरतों को रेखांकित करने वाली खुदरा मुद्रास्फीति मई में 6.3 प्रतिशत बढ़ गई।
महामारी के कारण अर्थव्यवस्था सुस्त, बढ़ती महंगाई
खाद्य मुद्रास्फीति अप्रैल के 1.96 प्रतिशत से बढ़कर मई में 5.01 प्रतिशत हो गई। इस अवधि में दालों के दाम 9.3 प्रतिशत चढ़े तो खाद्य तेलों की कीमतें 30.8 प्रतिशत तक उछलीं। इसका अर्थ यही हुआ सरसों तेल के दाम 132 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर 177 रुपये प्रति लीटर हो गए। वहीं पाम तेल 95 रुपये से चढ़कर 130 रुपये प्रति लीटर, सूरजमुखी तेल 128 रुपये से उछलकर 195 रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गया। इसमें यह तथ्य और जोड़ लीजिए कि महामारी के कारण अर्थव्यवस्था पहले ही सुस्ती की शिकार है। ऐसे में बढ़ती महंगाई के कारण स्टैगफ्लेशन यानी अपस्फीती जैसी खतरनाक स्थिति के आकार लेने का जोखिम बढ़ता जा रहा है।
आंकड़ेबाजी अर्थशास्त्रियों की रोजी-रोटी
आंकड़ेबाजी एक तरह से अर्थशास्त्रियों की रोजी-रोटी है। वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक में अर्थशास्त्रियों की भरमार है। अगर महंगाई की दर में बीते पांच महीनों से तेजी का रुख दिख रहा था तो उसके और बढ़ने से पहले क्यों नहीं ध्यान दिया जा सका। क्या उनकी नियुक्ति सिर्फ मीडिया को बयान देने के लिए ही हुई है कि वे यह कहकर कि अप्रैल और मई में आए आंकड़ों से उन्हें हैरत हुई है, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेंगे। चलिए शुरुआती दौर में उन्हें संदेह का लाभ दे भी दिया जाए तो फिर अप्रैल से वे क्या कर रहे थे? इसका जवाब है-कुछ भी नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक खुद को इसी बात से आश्वस्त करता प्रतीत होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में ऊंची वृद्धि और संयत मुद्रास्फीति की स्थिति नहीं हो सकती। यही धारण उसकी मौद्रिक नीति में भी झलकती है। हालांकि रिकॉर्ड के स्तर पर यह खरी नहीं उतरती।
मानसिकता में व्यापक परिवर्तन लाने का आवश्यकता
हम अभी तक उसी घिसे-पिटे जुमले का सहारा लेते हैं कि सभी सवालों के जवाब ईश्वर और प्रकृति से ही मिलेंगे। देश की तकरीबन आधी कृषि उपजाऊ भूमि को संचित करने वाला दक्षिण-पश्चिम मानसून सामान्य रहेगा, जिससे खरीफ की बढ़िया फसल होगी। बेहतर आपूर्ति से कीमतें काबू में आ जाएंगी। इससे लोगों को एक और साल के लिए राहत मिल जाएगी। क्या 19वीं सदी से कुछ भी नहीं बदला है? भारत को एक बदलाव की तत्काल आवश्यकता है और वह है मानसिकता में व्यापक परिवर्तन लाना। इसके बिना पांच ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर की अर्थव्यवस्था का महत्वाकांक्षी सपना दूर की कौड़ी ही बना रहेगा। और यह ऐसा परिवर्तन है, जिसे कोई देख नहीं सकता।