न्यायपालिका का मौजूदा स्वरूप: जस्टिस बोबडे के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में एक भी जज की नियुक्ति नहीं हुई:
[ विजय कुमार चौधरी ]: जस्टिस शरद अरविंद बोबडे पिछले दिनों 17 महीने का अपना कार्यकाल पूरा कर भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्त हो गए। कार्यकाल के अंतिम दिन उन्होंने समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘मैंने अपना सर्वोत्तम दिया।’ उनके इस कथन के दो तरह के अर्थ निकलते हैं। प्रथम, उपलब्धियों के परिप्रेक्ष्य में अपने कार्यकाल के प्रति एक संतुष्टि का भाव और दूसरा, परोक्ष रूप से इच्छित कार्य पूरा नहीं कर सकने पर वेदना एवं स्पष्टीकरण का भाव। मुख्य न्यायाधीश के रूप में नामित किए जाने पर बोबडे ने अपनी जो प्राथमिकताएं बताई थीं, उसमें उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्तियों को गति प्रदान करना, कुछ कानूनी प्रविधानों के दुरुपयोग को चिन्हित करना और इंटरनेट मीडिया के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को रेखांकित करना। उनके कार्यकाल पर नजर डाली जाए तो उनकी उक्ति में निराशा का ही भाव दिखता है।
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जस्टिस बोबडे के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में एक भी जज की नियुक्ति नहीं हुई
उच्चतम न्यायालय कोलेजियम द्वारा नियुक्तियों की बात करें तो कई वर्षों के बाद बोबडे एक बार फिर ऐसे प्रधान न्यायाधीश बने, जिनके कार्यकाल में उच्चतम न्यायालय में एक भी जज की नियुक्ति नहीं हो पाई। इसका कारण कोलेजियम में बोबडे के साथ अन्य चार जजों में सहमति नहीं बन पाना रहा। इस कारण उच्चतम न्यायालय में रिक्तियां होते हुए एक भी नियुक्ति नहीं हो सकी। इसके पहले मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू (2015) के समय में न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित आयोग अधिनियम पर केंद्र सरकार और कोलेजियम के द्वंद्व के कारण ऐसा नही हो पाया था। उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्तियों के संबंध में केंद्र सरकार एवं कोलेजियम के बीच गहरे मतभेद काफी दिनों से चर्चित रहे हैं। इसका मुख्य बिंदु जजों की नियुक्ति से जुड़े अधिकार का रहा है।
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भारतीय न्याय प्रणाली की अनोखी व्यवस्था, यहां जज ही जज की नियुक्ति करते हैं
न्यायपालिका का मौजूदा स्वरूप: पूरी दुनिया से अलग भारतीय न्याय प्रणाली की अनोखी व्यवस्था है कि यहां न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करते हैं। संवैधानिक प्रविधान की बात करें तो अनुच्छेद-124 एवं 227 के अनुसार राष्ट्रपति द्वारा आवश्यकतानुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के उपरांत उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है। न्यायपालिका ने अनुच्छेद-124 एवं 217 का निर्वचन करते हुए कोलेजियम से किए जाने वाले परामर्श एवं उसकी अनुशंसा को लागू करना, दोनों को बाध्यकारी बना दिया। जबकि इन दोनों अनुच्छेदों के मूल पाठ को देखने से ऐसा बिल्कुल प्रतीत नहीं होता।
बोबडे ने कहा- भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर महिला को आसीन होना चाहिए
उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं की अधिक नियुक्तियों पर बोबडे ने कहा कि अब समय आ गया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर किसी महिला को आसीन होना चाहिए। आखिर मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ लंबे समय तक कोलेजियम में रहने के बावजूद बोबडे महिलाओं की हिस्सेदारी क्यों नहीं बढ़ा सके? जब नियोक्ता ही नियुक्ति प्रक्रिया पर प्रश्न उठाएंगे तो आम नागरिक इसे किस रूप में लेंगे? यहां न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता का अभाव दिखता है। हालांकि इसमें दोराय नहीं कि भारतीय शासन प्रणाली में विधायिका एवं कार्यपालिका के कार्यकलाप को पूर्ण रूप से पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाने की जिम्मेदारी उच्चतर न्यायपालिका ने बखूबी निभाई है। कई ऐसे अवसर आए कि अगर न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं करती तो शासन-तंत्र में पारदर्शिता एवं जवाबदेही के प्रविधानों एवं मूल्यों की रक्षा नहीं हो पाती, परंतु पारदर्शिता एवं जवाबदेही के ये दोनों पहलू भारतीय उच्चतर न्यायपालिका का मौजूदा स्वरूप की कार्यशैली में नजर नहीं आते। आखिर इसके लिए तो न्यायपालिका को स्वनियामक की भूमिका खुद ही निभानी होगी।
जस्टिस बोबडे ने बोलने की स्वतंत्रता एवं जनहित याचिका के दुरुपयोग पर चिंता जताई,
जस्टिस बोबडे ने कुछ अन्य चीजों की ओर भी देश का ध्यान आकर्षित किया, जैसे बोलने की स्वतंत्रता, जनहित याचिका, इंटरनेट मीडिया सरीखी संवेदनशील व्यवस्था का खुला दुरुपयोग। सेवानिवृत्ति के दिन उन्होंने बोलने की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकार एवं जनहित याचिका जैसी प्रगतिशील न्यायिक व्यवस्था के दुरुपयोग पर चिंता जताई। उनकी मंशा स्पष्ट दिखती है कि लोग अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों के उपयोग की सकारात्मक सीमा से वाकिफ नहीं होंगे तो प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। आज बोलने की स्वतंत्रता का अर्थ कुछ भी बोलने के रूप में लिया जाता है। बोबडे के कथन का भाव दिखाता है कि बोलने की स्वतंत्रता में आपको क्या बोलने की स्वतंत्रता है एवं क्या नहीं बोलना है, इसका भान भी आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज में विवाद और उपद्रव की आशंका बनी रहेगी।
जनहित याचिकाओं की स्पष्ट मर्यादा एवं परिभाषा होनी चाहिए
जनहित याचिका की अवधारणा आवश्यक एवं आकस्मिक लोक महत्व के मुद्दों को लेकर आई थी, मगर आज किसी खास एजेंडे के तहत इसका बढ़ता दुरुपयोग चिंता का विषय है। अदालतों द्वारा भी वर्षों से लंबित मामलों की त्वरित सुनवाई एवं निष्पादन को छोड़ जनहित याचिकाओं का जरूरत से ज्यादा संज्ञान लेने से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है। अत: जनहित याचिकाओं की स्पष्ट मर्यादा एवं परिभाषा होनी चाहिए। आज किसी नागरिक के संबंध में बेबुनियाद बातों को इंटरनेट मीडिया के माध्यम से प्रचारित करना आम बात हो गई है। लोग अपने एजेंडे के तहत नियोजित लोगों के माध्यम से अनर्गल बातें फैलाते हैं। इंटरनेट मीडिया का व्यवहार अनियंत्रित रहता है। कई मामलों में इसके माध्यम से समाज में उत्तेजना का माहौल बनाकर विस्फोटक स्थिति बना दी जाती है। उदार ही सही, परंतु किसी कारगर नियामक की आवश्यकता इंटरनेट मीडिया के संदर्भ में आज सभी संवेदनशील नागरिक महसूस कर रहे हैं।
बोबडे की पीड़ा को तंत्र के तीनों अंग मिलकर निदान का प्रयास करना चाहिए
उम्मीद है कि बोबडे ने सेवानिवृत्ति के समय अपनी पीड़ा को जिस प्रकार देश के सामने उजागर किया, तंत्र के तीनों अंग विधायिका, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका मिलकर उसके निदान का प्रयास करेंगे। इसी से देशहित एवं जनहित सर्वोत्तम रूप से सधेगा।