अपनी प्रतिस्पर्धा क्षमता बढ़ाए भारत

अपनी प्रतिस्पर्धा क्षमता बढ़ाए भारत: अर्थव्यवस्था का इतना बड़ा आकार हमारी कुशलता को सही तरह से नहीं दर्शाता

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स्विटजरलैंड के इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट डेवलपमेंट (आइएमडी) ने प्रतिस्पर्धा सूचकांक में इस साल भारत को 64 देशों में 43वें स्थान पर रखा है। ब्रिक्स देशों में हमसे ऊपर चीन 16वें पायदान पर है, जबकि रूस 45वें, ब्राजील 57वें और दक्षिण अफ्रीका 62वें पायदान पर हैं। 2016 के सूचकांक में भारत 41वें स्थान पर था, जो 2017 में फिसलकर 47वें पायदान पर पहुंच गया। 2018 में हमारी स्थिति कुछ सुधरी और हम 43वें पायदान पर वापस पहुंच गए, लेकिन पिछले तीन वर्षों में हम 43वें पायदान पर अटके हुए हैं। दूसरा प्रतिस्पर्धा सूचकांक वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा बनाया जाता है। उसमें चीन को 28वें, रूस को 43वें, दक्षिण अफ्रीका को 60वें, भारत को 68वें और ब्राजील को 71वें स्थान पर रखा गया है। इसमें 2018 में भारत 58वें पायदान पर था, जो 2019 में फिसलकर 68वें पायदान पर पहुंच गया है। स्पष्ट है कि दोनों ही सूचकांक में हम फिसल रहे हैं। यह गंभीर बात है कि अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने के बावजूद हमारा प्रदर्शन लचर है।

शिक्षा के मामले में भारत 64 देशों में 59वें और स्वास्थ्य में एकदम अंतिम 64वें स्थान पर

हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा आकार हमारी कुशलता को नहीं दर्शाता। आइएमडी ने 12 प्रमुख बिंदुओं के आधार पर आकलन किया है। इनमें पांच बिंदुओं पर हमारी स्थिति अच्छी है। ये हैं विश्व व्यापार, वैश्विक निवेश, श्रम बाजार, सांस्कृतिक मूल्य और तकनीक। वहीं महंगाई, प्रशासनिक संस्थाएं, सामाजिक स्थिरता, उत्पादकता और बुनियादी संरचना जैसे पांच बिंदुओं पर हम कमजोर हैं, जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य में हमारी स्थिति बहुत दयनीय है। शिक्षा के मामले में हम 64 देशों में 59वें और स्वास्थ्य में एकदम अंतिम 64वें स्थान पर हैं। ऐसे में इन बिंदुओं पर पड़ताल जरूरी हो जाती है।

भारत में युवा बेरोजगारी पिछले वर्ष के 10.4 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हुई

पहले शिक्षा की बात करें। आइएमडी के अनुसार भारत में युवा बेरोजगारी पिछले वर्ष के 10.4 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत हो गई है। स्पष्ट है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था द्वारा युवाओं को ऐसे कौशल नहीं सिखाए जा रहे हैं, जिनसे वे जीवनयापन कर सकें। यह स्थिति तब है जब केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा पर भरपूर खर्च किया जा रहा है। रिजर्व बैंक के अनुसार 2020 में केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा पर 6.5 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए। करीब 4.6 करोड़ छात्रों पर 14,196 रुपये प्रति छात्र हर साल खर्च किए जा रहे हैं। फिर भी हमारी लचर स्थिति इस कारण है कि यह रकम मुख्य रूप से सरकारी अध्यापकों को वेतन देने में खप रही है। छात्रों को मुफ्त किताबें इत्यादि का प्रलोभन देकर सरकारी विद्यालयों में आर्किषत किया जा रहा है, जहां वे फेल हो रहे हैं। कहा जा सकता है कि मुफ्त सुविधा देकर सरकार उन्हें नाकाम ही बना रही है। इसलिए सरकार को सरकारी विद्यालयों की सर्जरी करनी चाहिए। यह विशाल रकम छात्रों को सीधे ‘शिक्षा वाउचर’ के रूप में दी जानी चाहिए, ताकि वे अपने मनचाहे विद्यालय में शिक्षा हासिल कर सकें। मेरा अनुमान है कि करीब एक तिहाई छात्र इन वाउचर का उपयोग नहीं करेंगे।

सरकार को आठवीं कक्षा से कंप्यूटर शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए

वर्तमान में ग्रामीण क्षेत्रों में अंग्रेजी मीडियम के विद्यालयों की मासिक फीस लगभग 12,000 रुपये प्रतिवर्ष है। अत: बच्चों को अच्छे विद्यालयों में जाने का अवसर मिल जाएगा और हमारी शिक्षा में शीघ्र सुधार संभव होगा। इसके अलावा सरकार को आठवीं कक्षा से कंप्यूटर शिक्षा अनिवार्य कर देनी चाहिए, जिससे भविष्य के लिए बच्चों की क्षमता विकसित हो सके। सरकारी अध्यापकों के वेतन इन वाउचर से मिली रकम से दिए जाएं।

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भारत की दूसरी कमजोरी स्वास्थ्य एवं पर्यावरण का क्षेत्र है

हमारी दूसरी कमजोरी स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के क्षेत्र में है। आइएमडी की सूची में हम इस बिंदु पर सबसे निचले स्थान पर हैं। इस बिंदु के दो पहलू हैं-प्रदूषण और स्वास्थ्य। दोनों में ही हम 64वें पायदान पर हैं। सरकार की नीति है कि आर्थिक विकास हासिल करने के लिए प्रदूषण को अनदेखा किया जाए। पिछले कुछ अर्से से थर्मल बिजली परियोजनाओं पर लागू वायु प्रदूषण मानकों में कुछ छूट दी गई है। नदियों को बड़े जहाज चलाकर प्रदूषित किया जा रहा है। ऐसी गतिविधियों का परिणाम है कि प्रतिस्पर्धा सूचकांक में हम सबसे निचले पायदान पर जा पहुंचे हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि प्रदूषण के कारण देश के अमीरों का भारी संख्या में पलायन हो रहा है। हमारी पूंजी दूसरे देशों में जा रही है। ऐसे में पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर र्आिथक विकास हासिल करने की नीति को त्यागना जरूरी है।

भारत कोविड संकट का पूर्वानुमान लगाने एवं सुरक्षात्मक कदम उठाने में विफल रहा

स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी हमारी स्थिति गंभीर है। ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश और चीन जैसे बड़े अलोकतांत्रिक देश, दोनों की ही तुलना में हम कोविड संकट का पूर्वानुमान लगाने एवं सुरक्षात्मक कदम उठाने में विफल रहे। रिजर्व बैंक के अनुसार केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के स्वास्थ्य पर सालाना 1,900 रुपये व्यय किए जा रहे हैं। डॉक्टरों के लिए उपचार पर किए गए खर्च लाभप्रद होते हैं। स्वास्थ्य तंत्र की रुचि प्रिवेंटिव यानी निवारक कार्यों में नहीं होती, क्योंकि इससे उनके पास मरीज आने बंद हो जाएंगे। मान लिया जाए कि 1,900 रुपये में 1,500 रुपये उपचार पर खर्च किए जा रहे हैं तो इस रकम को भी जनता को स्वास्थ्य वाउचर के रूप में दे देना चाहिए। सरकार का काम केवल जन स्वास्थ्य जैसे टीकाकरण, पेयजल व्यवस्था और स्वास्थ्य शिक्षा की व्यवस्था इत्यादि करने का रह जाए। उपचार की सुविधा जनता स्वास्थ्य वाउचरों के माध्यम से हासिल करे। तब स्वास्थ्य तंत्र की रुचि प्रिवेंटिव कार्यों में बनेगी और लोगों का स्वास्थ्य ठीक हो जाएगा। परिस्थिति गंभीर है। देश को यदि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खड़ा होना है तो अपनी प्रतिस्पर्धा शक्ति बढ़ानी होगा। इसके लिए पर्यावरण, स्वास्थ्य और शिक्षा नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा। अन्यथा हम प्रतिस्पर्धा सूचकांक में पिछड़ते जाएंगे। इससे पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना भी पहुंच से बाहर होता जाएगा।