भारत और चीन के बीच लद्दाख में टकराव वाले इलाकों से सेनाओं की वापसी को लेकर होने जा रही बातचीत से अनुकूल नतीजे हासिल होने के बारे में कुछ कहना कठिन है तो इसीलिए कि चीनी सत्ता मुश्किल से ही अड़ियल रवैया छोड़ने को तैयार होती है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पैंगोंग झील के किनारों से सेनाओं को पीछे ले जाने को लेकर सहमति कई दौर की वार्ता के बाद ही बन सकी।
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यह ठीक है कि चीन की अकड़ ढीली पड़ चुकी है और वह इससे भी भली तरह परिचित हो चुका है कि भारत उसे कोई रियायत देने वाला नहीं है, लेकिन उसके इरादे अब भी संदेह जगाते हैं। नि:संदेह चीन इससे भी अवगत है कि आज का भारत वह नहीं, जो उसकी दादागीरी सहने को तैयार हो जाए।
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चीन को काबू में रखने के लिए जहां यह जरूरी है कि सीमाओं पर चौकसी बनाए रखी जाए, वहीं यह भी कि उसके यहां से होने वाले आयात पर निर्भरता घटाई जाए। हालांकि गलवन घाटी की घटना के बाद इस दिशा में कदम उठाए जाने शुरू कर दिए गए थे, लेकिन अभी अपेक्षित नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं।
लद्दाख में चीनी सेना की हरकत से पैदा हुए तनाव और कोविड महामारी के चलते बीते साल दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार में कुछ कमी अवश्य आई, लेकिन अब भी असंतुलन बना हुआ है और पलड़ा चीन के पक्ष में ही अधिक झुका है। भारत को यह स्थिति स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए।
यह सही है कि चीनी वस्तुओं पर निर्भरता यकायक कम नहीं हो सकती, लेकिन इसकी कोई ठोस रूपरेखा तो बनाई ही जानी चाहिए। यह रूपरेखा तभी बन सकती है, जब हमारे उद्यमी मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए सक्रिय हों। निश्चित तौर पर इसमें सरकार को अतिरिक्त प्रोत्साहन देना होगा, लेकिन यह कोशिश तो उद्योगपतियों को ही करनी होगी कि वे ग्लोबल वैल्यू चेन का हिस्सा बनें और चीन के वर्चस्व को तोड़ें।
यह सही समय है कि आत्मनिर्भर भारत अभियान की समीक्षा करते हुए इस पर भी विचार किया जाए कि चीन से बाहर निकलने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत को अपना पहला पसंदीदा ठिकाना क्यों नहीं माना? इस सवाल पर केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों को भी विचार करना होगा।