Caste Based Census

Caste Based Census | जाति आधारित जनगणना | रिपोर्ट 2023 | एक विश्लेषण

बिहार की जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट-2023 : एक विश्लेषण

मुद्दा क्या है?

2 अक्टूबर, 2023 को बिहार सरकार ने राज्य की पहली जाति आधारित जनगणना रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट बिहार में जाति की भूमिका और इसके प्रभावो की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करती है। हालांकि यह रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा जिससे बिहार राज्य की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को समझने एवं उसके उत्थान के लिए जरूरी आवश्यकताओं को समझने में मदद मिलेगी।

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रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:-

  • बिहार की कुल आबादी 13,7,25,310. है।
  • वंचित वर्ग (एससी, एसटी और ओबीसी) की आबादी कुल आबादी का 63% है।
  • अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की आबादी 36% है, जो बिहार में सबसे बड़ा वंचित समूह है।
  • बिहार की सबसे बड़ी जाति ‘यादव’ है जिसकी आबादी 5 करोड़।
  • वंचित वर्गों की आबादी में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है।
  • इसमें पुरुषों की कुल संख्या 6,41,31,990 है जबकि महिलाओं की संख्या 6,11,48,460 है तथा अन्य की संख्या 82,836 पाई गई है।
  • गणना के अनुसार हजार पुरुषों पर 953 महिलाएं पाई गई है
  • इस रिपोर्ट में बिहार की कुल 2 ,83,44,160 परिवारों को सर्वेक्षित किया गया है।
  • जाति आधारित इस जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार में सबसे अधिक हिंदूओं की संख्या है, इनकी जनसंख्या कुल आबादी का 99% है, दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय ‘मुस्लिम’ समुदाय है जो बिहार की कुल जनसंख्या की 17.70% आबादी का प्रतिनिधित्व है।
  • बिहार में अन्य प्रमुख धार्मिक समुदायों में बौद्ध धर्म (09%), ईसाई समुदाय (0.05%) एवं सिख समुदाय (0.01%) है।

 

रिपोर्ट के संभावित निहितार्थ:-

  • बिहार के सामाजिक न्याय के लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता है। ओबीसी और ईबीसी समुदायों को अक्सर धार्मिक और सामाजिक रूप से वंचित माना जाता रहा है, इस रिपोर्ट से पता चलता है कि इस समुदायों की आबादी बिहार में बहुत बड़ी है, इसलिए इन समुदायों की जरूरतों है को पूरा करने के लिए सरकार को अधिक संसाधनों को आवंटित करने की आवश्यकता होगी।

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  • यह रिपोर्ट 1992 के ‘इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ’ के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से तय की गई। आरक्षण की 50% की सीमा को फिर से विवाद का विषय बना सकती है क्योंकि अपने इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य अपने नगर नागरिकों को आरक्षण की व्यवस्था प्रदान कर सकता है लेकिन दिया गया कुल आरक्षण 50% की सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी व्यवस्था दी है कि किसी विशेष परिस्थिति में कोई राज्य अगर जाति का जनगणना सर्वेक्षण कराए और उसे पता चलता है कि किसी समुदाय विशेष को अतिरिक्त आरक्षण की जरूरत है तो ऐसी स्थिति में आरक्षण में इस 50% की सीमा को लांघा जा सकता है, अपने इसी कथन के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार द्वारा 50% से अधिक दिए गए आरक्षण को वैध ठहराया था।
  • इससे रिपोर्ट से बिहार में जाति आधारित राजनीति को नई गति मिलने की संभावना है क्योंकि रिपोर्ट के आंकड़े राजनीतिक दलों को अपने वोट बैंक को मजबूत करने में मदद हो सकते हैं। जैसे, उदाहरण के लिए एक दल जो ओबीसी और ईबीसी समुदायों के लिए अधिक कार्यक्रम और लाभ प्रदान करने का वादा करता है, वह इन समुदायों के बीच अधिक लोकप्रिय हो सकता है।
  • रिपोर्ट से पता चलता है कि बिहार में जाति आधारित भेदभाव अभी भी एक समस्या है। रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में ओबीसी और ईबीसी समुदायों के सदस्यों को अक्सर आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित किया जाता है।
  • रिपोर्ट से पता चलता है कि बिहार में जाति आधारित राजनीति एक महत्वपूर्ण शक्ति है, रिपोर्ट के आंकड़े राजनीतिक दलों को अपने वोट बैंक को बढ़ाने की में प्रेरक शक्ति की भूमिका निभा सकते हैं।
  • रिपोर्ट से पता चलता है कि बिहार में जाति आधारित पहचान अभी भी एक महत्वपूर्ण पहचान है।

रिपोर्ट के संभावित सकारात्मक परिणाम:-

  • इस रिपोर्ट से बिहार सरकार को वंचित वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को विकसित करने और लागू करने में मदद मिल सकेगी।
  • वंचित वर्गों के लिए रोजगार व शिक्षा के अवसरों में सुधार करने से मदद मिल सकेगी।
  • बिहार में इस रिपोर्ट के आधार पर मुद्दों को परिलक्षित करके सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना आसान हो सकेगा।
  • स्वास्थ्य खाद्य आवास जैसी सुरक्षा सुरक्षागत योजनाओं को सीधे उन लोगों तक पहुंचना आसान होगा जिनको उनकी जरूरत सबसे ज्यादा होगी।
  • गैर कानूनी दस्तावेज़ो के माध्यम से ली जा रही सरकारी सेवाओं को कम किया जा सकेगा।

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रिपोर्ट के नकारात्मक प्रभाव:-

जातिगत आधार पर विभाजन को बढ़ावा:  अगर हम जातिगत आधार पर जनगणना करते हैं तो इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि इसके कारण भारत में जाति के आधार पर होने वाला विभाजन और ज्यादा बढ़ जाएगा भारत में पहले से ही धार्मिक विभाजन का एक प्रमुख समस्या बना हुआ है। इस जनगणना से ऐसी ही एक और समस्या को बढ़ावा मिलेगा। परिणाम स्वरुप वर्तमान भारतीय समाज भारतीय समाज का ताना-बाना बिगड़ जाएगा।

 

वोट बैंक पहचान की राजनीति को बढ़ावा:- अक्सर यह देखा जाता है कि कई राजनीतिक दल ऐसी जनगणनाओं  का उपयोग अपना वोट बैंक बढ़ाने या अपनी पहचान के वोट बैंक को लक्षित करने में कर सकते हैं। जिसमें देश में पहचान की राजनीति को बढ़ावा मिलने का भी खतरा रहता है जैसे, जब देश में ‘मंडल आयोग आंदोलन’ की शुरुआत हुई तब देश में बहुत से ऐसे राजनीतिक दलों का उदय हुआ जो सिर्फ अपनी जातीय पहचान के आधार पर कार्य करते हैं।

 

जरूरी मुद्दों से भटकाव की संभावना:-  इस तरह की जाति आधारित जनगणना से देश की राजनीति का ध्यान देश के जरुरी मुद्दे जैसे, गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, रोजगार, महंगाई, विकास आदि जैसे मुद्दों से भटकाव पैदा हो सकता है।

हिंसा की संभावना:-  इस तरह की जनगणना की अन्य राज्यों या पूरे देश में पैदा हो सकती जिससे ‘मंडल आयोग’ के दौरान हुई हिंसाओं की पुनरावृत्ति का खतरा पैदा हो सकता है।

 

जातिगत गणना की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :-

भारत में पहली जातिगत जनगणना सन 1881 में ‘वायसराय लॉर्ड रिपन’ के समय हुई थी। उस समय ब्रिटिश सरकार ने यह पता लगाने के लिए जनगणना का आयोजन किया था कि भारत की आबादी के विभिन्न सामाजिक समूहों को कैसे वर्गीकृत किया जाए। 1881 में जनगणना में लोगों से उनकी जाति एवं गोत्र के बारे में पूछा गया था।

सन 1931 में भारतीय अंग्रेज़ी सरकार ने एक और जातिगत जनगणना आयोजित की। 1931 की जनगणना में लोगों से उनकी जाति के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी मांगी गई थी 1931 की जनगणना के आंकड़े आज भी भारत जाति आधारित भेदभाव और असमानता के बारे में सबसे विश्वसनीय जानकारी प्रदान करते है।

1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद सरकार ने जातिगत जनगणना आयोजित करने से परहेज किया। सरकार का मानना था कि जातिगत जनगणना जातिवाद को बढ़ावा देगी।

1990 के दशक में सामाजिक न्याय और आरक्षण की मांगों के साथ जातिगत जनगणना की मांग फिर से उठने लगी। 2011 की जनगणना के लिए सरकार ने जाति संबंधी आंकड़े एकत्रित किए, लेकिन यह आंकड़े सभी सार्वजनिक नही किए गए।

Note: – विश्व के विभिन्न देशों जैसे युएसए (जनगणना ब्यूरो), ब्रिटेन (राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय) कनाडा, ऑस्ट्रेलिया एवं दक्षिण अफ्रीका आदि जैसे विकसित एवं विकासशील देशों द्वारा भी जातिगत जनगणना करवाई जाती है परंतु इसका उद्देश्य सामाजिक ‘न्याय एवं समानता’ को बढ़ावा देने वाली नीतियों के निर्माण में एवं ‘नस्लीय एवं जातीय भेदभाव को मापने’ के लिए करवाया जाता है।

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