fbpx
Indian wisdom tradition

भारतीय ज्ञान परंपरा

भारतीय ज्ञान परंपरा को पहचानने का समय: गिरीश्वर मिश्र

भारत में अपनी ज्ञान परंपरा और भाषाओं को लंबे समय से पराभव में रखा गया। आशा है कि अब उसे सही दिशा मिलेगी।

देव दीपावली के पावन अवसर पर वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देवी अन्नपूर्णा की मूॢत को, जिसे चोरी करके एक सदी पहले कनाडा की रेजिना यूनिवॢसटी के संग्रहालय में पहुंचा दिया था, उसे वापस देश को सौंपे जाने की चर्चा की थी। तब वहां के कुलपति टॉमस चेज ने बड़ी मार्के की बात कही थी कि ‘यह हमारी जिम्मेदारी है कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारा जाए और उपनिवेशवाद के दौर में दूसरे देशों की विरासत को पहुंची क्षति की हरसंभव भरपाई की जाए।Ó आशा है कि इस साल के अंत तक यह मूॢत अपने मूल स्थान पर पुन: विराजित हो जाएगी। दरअसल विपन्नता की स्थिति में अपनी बहुमूल्य संपत्ति को गिरवी रखना और स्थिति सुधरने पर उसे छुड़ाकर वापस लाना कोई नई बात नहीं है और इसका दस्तूर अभी भी जारी है। भारत की समृद्ध ज्ञान संपदा और उसकी अभिव्यक्ति को भी अतीत में अंग्रेजों के पास बंधक रख दिया गया, पर परेशानी यह है कि उसके एवज में जो लिया गया या मिला उसकी परिधि में ही शिक्षा का आयोजन हुआ और अभ्यास वश उसके मोहक भ्रम में हम सब कुछ ऐसे गाफिल हुए कि अपनी संपदा को अपनाना तो दूर उसे पहचानने से भी इन्कार करते रहे। मैकाले साहब ने जो तजबीज भारत के लिए की उसे हमने कुछ इस तरह कुबूल कर अपनाया कि स्मृति-भ्रंश जैसा होने लगा और विकल्पहीन होते गए। इसके चलते अपने स्वभाव के अनुसार सोचने-विचारने पर ऐसा प्रतिबंध लगा कि कोल्हू के बैल की भांति पीढ़ी-दर-पीढ़ी पराई दृष्टि के पीछे ही चलते रहे। चलने से गति का अहसास तो हो रहा था, लेकिन दृष्टि पर पड़े आवरण से दिशा-बोध जाता रहा। इसका परिणाम सामने है। आइआइएम और आइआइटी जैसे शिक्षा के कुछ सुरम्य द्वीपों के चारों और कुशिक्षा का समुद्र हिलोरें ले रहा है। आज डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या, गुणवत्ता की दृष्टि से कमजोर शिक्षा और भारत के स्वभाव और संस्कृति से बढ़ते अपरिचय के बीच शिक्षा जगत में बेचैनी व्याप्त है। शिक्षा के सभी स्तरों पर छात्रों की तादाद भले बढ़ी हो, लेकिन गुणवत्ता घटी है। आज प्राथमिक विद्यालय में बच्चे का प्रवेश जग जीतने का कारनामा जैसा हो गया है। इस स्तर पर जितनी विषमता व्याप्त है उसका अनुमान लगाना भी कठिन है। सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों और उनके वर्ग भेद ‘शिक्षा के अधिकार की धज्जियां उड़ाते हैं। निजी विद्यालयों की ऊंची फीस और व्यवस्था अभिभावकों के लिए तनाव का बड़ा कारण बन रही है। वहीं सरकारी स्कूलों के बच्चों की शैक्षिक उपलब्धि शोचनीय है।

इससे शायद ही कोई असहमत हो कि हम पर थोपी हुई शिक्षा की दृष्टि अंग्रेजों की औपनिवेशिक उद्देश्यों की पूॢत का उपाय थी न कि यहां की अपनी जैविक उपज। उसकी विश्व दृष्टि के परिणाम देश को स्वतंत्रता मिलने के समय साक्षरता, शिक्षा और अर्थव्यवस्था में व्याप्त घोर विसंगतियों में देखे जा सकते हैं। स्वतंत्रता के समय हमें यह रीति-नीति बदलने का अवसर मिला, लेकिन हम कुछ न कर सके। उसके सात दशक बाद भी उच्चतम न्यायालय का दरवाजा भारत की भाषा के लिए बंद है। भाषा और ज्ञान की दृष्टि से हम जिस तरह परनिर्भर होते गए वह ज्ञान के प्रचार और प्रवाह की दृष्टि से लोकतंत्र के लिए बड़ा घातक सिद्ध हो रहा है। इस दौरान हम भारत की समझ की भारतीय दृष्टि की संभावना के प्रति भी संवेदनहीन बने रहे। राजा बदलने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर राजकाज में यथास्थिति ही बनी रही। संभवत: औपनिवेशिक दृष्टि की औपनिवेशिकता ही दृष्टि से ओझल हो पाई और उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए सहज स्वीकार्य हो गई। ज्ञान का केंद्र पश्चिम हो गया और उसी का पोषण एवं परिवर्धन ही औपचारिक शिक्षा का ध्येय बन गया और इस कार्य के लिए अंग्रेजी भाषा को भी अबाध रूप से प्रश्रय मिलता गया। इसके सामाजिक-सांस्कृतिक आशय से बेखबर हम उसी माडल को आगे बढ़ाते गए और बिना भारतीय ज्ञान परंपरा को जाने उसे हाशिये पर धकेलते गए। भाषा, जो ज्ञान का प्रमुख माध्यम है, वह ज्ञान का पैमाना बन गई। शिक्षा में स्वराज्य एक स्वप्न बनता गया। अंग्रेजी उन्नति की सीढ़ी बन गई। जो अंग्रेजी जाने वही कुलीन और योग्य करार दिया जाने लगा। सामाजिक भेदभाव और सामाजिक दूरी ही नहीं स्वास्थ्य, कानून और न्याय आदि से जुड़ी नागरिक जीवन की सामान्य सहूलियतें भी इससे जुड़ गईं। बारह पंद्रह प्रतिशत लोगों की अंग्रेजी अस्सी प्रतिशत से अधिक भारतीय जनों की भाषाओं पर भारी पड़ रही है। इस बाध्यता के चलते पढ़ाई-लिखाई और अध्ययन-अनुसंधान परोपजीवी होता गया। मौलिकता और सृजनात्मकता की जगह अनुकरण , पुनरुत्पादन और पिष्ट-पेषण की जो प्रबल धारा प्रवाहित हुई उसने घोर अंधानुकरण को बढ़ावा दिया। उसने देश-काल और संस्कृति से काटने के साथ जिस दृष्टिकोण को स्थापित और संवर्धित किया उसके चलते हम बिना किसी द्वंद्व के उस यूरो-अमेरिकी नजरिये को ही सार्वभौमिक मान बैठे जो मूलत: सीमित, स्थानीय और एक खास तरह का ‘देसीÓ ही था, परंतु आॢथक-राजनीतिक तंत्र के बीच पश्चिम से निर्यात किया गया। यह कितना अनुदार रहा यह इस बात से प्रमाणित होता है कि इसने भारतीय ज्ञान परंपरा को अप्रासंगिक और अप्रामाणिक ठहराते हुए प्रवेश ही नहीं दिया गया या फिर उसे पुरातात्विक अवशेष की तरह जगह दी गई। उसका ज्ञान सृजन के साथ कोई सक्रिय रिश्ता नहीं बन सका।

मुश्किल यह भी हुई कि भारतीय ज्ञान धारा में भारत का जो थोड़ा बहुत प्रवेश हुआ भी वह उसका पाश्चात्य संस्करण था जिसमें दुराग्रहपूर्ण और गलत व्याख्याएं भी शामिल थीं। दूसरी ओर भारतीय समाज को पश्चिमी सिद्धांतों की परीक्षा के लिए नमूना (सैंपल) माना जाता रहा। इस पूरी प्रक्रिया में हमने गांधी जी की सीख भुला दी कि हमें अपनी जमीन पर ही पांव टिकाए रखने हैं। हां, खिड़कियां जरूर खुली रखनी हैं ताकि बाहर की बयार आती-जाती रहे। हम यह भी भूल गए कि शिक्षा को समग्र व्यक्तित्व के विकास से जुड़ा होना चाहिए ताकि हाथ, दिल और दिमाग सभी कार्यरत रहें। मानव सेवा में ईश्वर सेवा का भाव भी नहीं रहा और न मनुष्य के रूप में जीने के लिए जरूरी आत्म नियंत्रण का ही भाव रहा।

यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति गहनता से इन विसंगतियों से रूबरू होते हुए विषयगत, प्रक्रियागत और संरचनागत बदलाव की दिशा में अग्रसर हो रही है। बंधक पड़ी सरस्वती को भी छुड़ाना आवश्यक है। भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं को लंबे समय से पराभव में रखा जाता रहा है। आशा है नई शिक्षा नीति उनके साथ न्याय कर सकेगी।

लेखक | गिरीश्वर मिश्र| पूर्व कुलपति और शिक्षाविद्

For more details : Ensemble IAS Academy Call Us : +91 98115 06926, +91 7042036287

Email: [email protected] Visit us:-  https://ensembleias.com/

#indian #wisdom_tradition#PM_narendra_Modi  #india #prime_minister #narendra_modi #BJP #blog #current_affairs #daily_updates #free #editorial #geographyoptional #upsc2020 #ias #k_siddharthasir #ensembleiasacademy