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केंद्र बनाम दिल्ली सरकार के अधिकार

पिछले सप्ताह संसद में दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकारों को लेकर एक विधेयक पारित हुआ। इसमें दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकार पहले से कहीं अधिक स्पष्ट किए गए हैं। हालांकि समय-समय पर दिल्ली को और अधिकार देने अथवा उसे पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग होती रही है, लेकिन देश की राजधानी होने के कारण केंद्र ने उसके अधिकार सीमित ही रखे। उप राज्यपाल को अधिक अधिकार प्रदान कर एक तरह से उनके जरिये ही दिल्ली के शासन को संचालित किया गया। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के रूप में दिल्ली के उप राज्यपाल के पास राज्यपालों की अपेक्षा अधिक शक्तियां हैं। अन्य राज्यों की तरह दिल्ली के पास पुलिस, कानून एवं व्यवस्था और भूमि संबंधी अधिकार नहीं हैं। हालांकि दिल्ली के पास विधानसभा है, मगर वह इन तीन विषयों से जुड़े कानून नहीं बना सकती। दिल्ली सरकार के पास मुख्यत: शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, पेयजल व्यवस्था से संबंधित अधिकार हैं। दिल्ली की सफाई व्यवस्था और कुछ अन्य अधिकार उसके नगर निगमों के पास हैं।

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आजादी के बाद से दिल्ली को जिस तरह संचालित किया गया, उसके चलते वह बेतरतीब और अनियोजित विकास का शिकार हुई है। आज अगर दिल्ली के लोगों से पूछा जाए कि यहां बेतरतीब विकास के लिए कौन जिम्मेदार है तो शायद वे ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पाएंगे। आजादी के बाद देश के राज्यों को तीन स्तरों पर विभाजित किया गया। दिल्ली तीसरे स्तर का राज्य था। 1952 से 1956 तक दिल्ली के पास अपनी विधानसभा और मुख्यमंत्री रहे। 1956 में दिल्ली केंद्र शासित राज्य बना और उसकी विधानसभा भंग कर दी गई। 1991 में दिल्ली को फिर विधानसभा मिली। 1993 में पुन: विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा के मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने। इसके बाद भी एक के बाद एक केंद्र सरकारें दिल्ली की जनता द्वारा चुनी गई सरकारों को पर्याप्त अधिकार देने में संकोच करती रहीं। इसका कारण यह रहा कि दिल्ली में रहने वाले केंद्र सरकार के अधिकारी उसे अपने ढंग से शासित करने की मानसिकता से लैस रहे। जाहिर है कि दिल्ली सरकार के अधिकारों पर बहस की गुंजाइश बनती है।

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दिल्ली के उप राज्यपाल के अधिकारों संबंधी जो विधेयक संसद से पारित हुआ, उसका आधार उच्चतम न्यायालय का एक निर्णय है। यह निर्णय दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल में अधिकारों के टकराव को दूर करने को लेकर दायर एक याचिका के संदर्भ में दिया गया था। उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया था कि दिल्ली में जमीन, पुलिस या लोक व्यवस्था से जुड़े फैसलों के अलावा राज्य सरकार को उप राज्यपाल की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं। इस फैसले के बाद दिल्ली सरकार ने अपने निर्णयों से पहले संबंधित फाइल उप राज्यपाल के पास भेजना बंद कर दी और केवल उन्हें सूचित करना प्रारंभ कर दिया। इसने विवादों को जन्म दिया। दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर विवाद जारी रहा। केंद्र सरकार के अनुसार इसी विवाद को खत्म करने और उप राज्यपाल के अधिकारों को और स्पष्ट करने के लिए उक्त विधेयक लाया गया है।

यदि दिल्ली के उप राज्यपाल को और अधिकार देने वाला विधेयक कानून का रूप लेता है तो उनकी शक्तियां और बढ़ जाएंगी। अब यदि दिल्ली सरकार या उसकी कैबिनेट की ओर से कोई प्रशासनिक फैसला लिया जाता है तो उसमें उप राज्यपाल की मंजूरी आवश्यक होगी। इसके साथ ही दिल्ली विधानसभा के पास उप राज्यपाल की सहमति के बिना प्रशासनिक प्रभाव वाला कोई कानून बनाने का अधिकार नहीं होगा। चूंकि यह स्थिति दूसरे राज्यों में नहीं है इसलिए यह सवाल उठेगा कि जनता की ओर से चुनी गई अन्य सरकारों और दिल्ली की सरकार में इतना फर्क क्यों? देश के अनेक राज्यों की आबादी दिल्ली से कहीं कम है, जैसे मिजोरम और त्रिपुरा, फिर भी उन्हें दिल्ली के मुकाबले कहीं अधिक अधिकार प्राप्त हैं। दिल्ली देश की राजधानी है। उसके विकास को देखकर देश ही नहीं, दुनिया भारत की बढ़ती हुई ताकत और उसकी आर्थिक क्षमता का आकलन करती है, लेकिन अधिकारों को लेकर अस्पष्टता और दिल्ली सरकार एवं उप राज्यपाल के बीच तनातनी के चलते दिल्ली अनियोजित विकास का पर्याय बनी हुई है। यह एक तथ्य है कि दिल्ली विकास प्राधिकरण दिल्ली का नियोजित विकास नहीं कर सका। दिल्ली के अनेक इलाकों के मुकाबले एनसीआर के शहरों जैसे गुरुग्राम और नोएडा कहीं बेहतर तरीके से विकसित हुए। इस स्थिति के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण ही जिम्मेदार है।

भारत अपनी आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। अब जब हमारा लोकतंत्र मजबूत और परिपक्व हो चुका है, तब इस पर चर्चा होनी चाहिए कि केंद्र शासित प्रदेशों को वहां की चुनी हुई सरकारें वैसे ही क्यों न चलाएं, जैसे राज्यों की सरकारें चलाती हैं? यह ठीक है कि दिल्ली में केंद्रीय सत्ता भी काम करती है, लेकिन ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है कि यहां के नगर निगम, दिल्ली विवि, विकास प्राधिकरण, अस्पतालों के साथ कानून एवं व्यवस्था दिल्ली सरकार के अधीन रहे। अगर केंद्र को यह आशंका हो कि दिल्ली सरकार उसके कामों में अड़ंगा लगा सकती है या फिर उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करने में बाधक बन सकती है तो कानूनन ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि वह ऐसा कुछ न कर सके। यदि दिल्ली सरकार फिर भी केंद्र के लिए समस्याएं खड़ी करे तो उप राज्यपाल के जरिये उसे ऐसा करने से रोका जा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे अन्य राज्यों में राज्यपाल के माध्यम से किया जाता है। आज के इस दौर में केंद्र शासित प्रदेशों की आवश्यकता पर विचार होना चाहिए। जब जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप चलने वाली शासन व्यवस्था का महत्व बढ़ता जा रहा है तब फिर केंद्र शासित राज्यों में उप राज्यपालों के पास मुख्यमंत्री से अधिक अधिकार क्यों होने चाहिए?

मोदी सरकार बड़े और साहसिक फैसलों के लिए जानी जाती है। उसने जीएसटी लागू करने, योजना आयोग की जगह नीति आयोग स्थापित करने और अनुच्छेद 370 खत्म करने जैसे साहसिक फैसले लिए हैं। आखिर वह ऐसा कोई फैसला क्यों नहीं ले सकती, जिससे दिल्ली समेत अन्य केंद्र शासित राज्यों की जनता द्वारा चुनी गईं सरकारें उसी क्षमता से काम कर सकें, जैसे राज्यों की सरकारें करती हैं? ऐसे किसी फैसले से कुल मिलाकर आम जनता को ताकत मिलने के साथ ही संघीय ढांचे को भी मजबूती मिलेगी।