नेशनल टाइगर कंजर्वेशन ऑथरिटी – National Tiger Conservation Authority (NTCA) ने आदमखोर शब्द को हमेशा के लिए मिटा दिया है।
आदमखोर शब्द का इस्तेमाल किए बिना बाघों के रहस्य से परदा उठाना मुश्किल है। आदमखोर बाघों की समस्या खत्म करने के नाम पर ब्रिटिश शिकारी दरअसल बाघों और लोगों, दोनों को अपनी ताकत दिखाना चाहते थे। आदमखोर वन्य-जीवों से जुडे़ विशेष साहित्य का नेतृत्व केनेथ एंडरसन और जिम कार्बेट ने किया, इन्होंने आदमखोर बाघों पर फोकस करके उन्हें ‘पॉपुलर कल्चर’ का हिस्सा बना दिया। यह विचार चौंकाता है कि कोई जानवर ऐसा भी हो सकता है, जो जान-बूझकर लोगों को मारता और खाता हो। इसे अन्य बाघों से एक अलग ही प्रजाति के रूप में वर्णित कर दिया गया। ये आदमखोर बाघ उन बाघों से अलग बताए गए, जो इंसानों से सामना होने पर खुद ही दूर चले जाते हैं। घायल होने पर या लोगों के अत्यधिक करीब आ जाने पर ही कुछ बाघ शायद शिकार करते हैं और उन पर तत्काल काबू करने की जरूरत पड़ती है। पहले शिकार के बाद जानवर का प्रदर्शन होता था, मृत बाघ को एक ट्रॉफी के रूप में दर्शाया जाता था। ऐसी ट्रॉफियां इस देश में औपनिवेशिक विरासत का हिस्सा हैं।
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बाघ या तेंदुए की मृत देह पर एक पैर रखकर बंदूक के साथ शिकारी की तस्वीर आज बहस का मुद्दा बन जाती है और उस दौर का एक दोष सामने आ जाता है। हालांकि इस महीने नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी ने आदमखोर शब्द को हमेशा के लिए मिटा दिया है। यह निर्देश दिया गया है कि समस्या बन गए बाघों को केवल खतरनाक बाघ कहा जाए। यह भी निर्देश दिया गया है कि खतरनाक हो चुके बाघों को केवल सरकारी बंदूकची या शूटर ही निशाना बनाएंगे। ऐसे अभियान समस्या के समाधान के लिए ही चलाए जाएंगे और शिकार का महिमामंडन नहीं किया जाएगा। जिस देश में वन्य-जीवों का शिकार प्रतिबंधित हो, वहां सजग वन विभाग को खुद को हीरो बताने वाले शिकारियों के पीछे पड़ जाना चाहिए।
पहले के दिशा-निर्देश के अनुसार, आदमखोरों के खात्मे के लिए बाहर से शिकारी लाने का प्रावधान था, लेकिन अब यह नियम बन गया है कि वन विभाग के ही अधिकृत और कुशल कर्मी से काम लिया जाएगा या किसी अन्य सरकारी विभाग से कुशल शूटर बुलाए जाएंगे। यह भी स्पष्ट किया गया है कि अब किसी भी उपयुक्त बंदूक का इस्तेमाल हो सकेगा। पहले 0.375 बोर की बंदूक इस्तेमाल होती थी। इतने बोर की बंदूक बहुत महंगी होती है। शायद पहले जो दिशा-निर्देश था, वह अमीर शूटरों को तरजीह देने के लिए बनाया गया था। यह दिशा-निर्देश प्रगतिशील कदम है, जिससे न केवल दुर्भाग्यपूर्ण और संभ्रांत औपनिवेशिक विरासत का सिलसिला टूटेगा, बल्कि इससे वन विभाग भी कौशल विकसित करने के लिए प्रेरित होगा।
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बाघों की निगरानी के लिए गंभीर प्रयासों और अनुभव की जरूरत है। इस मामले में कमी आए दिन की समस्या है। हाल ही में महाराष्ट्र के चंद्रपुर के करीब एक घायल बाघ चट्टानों के बीच फंस गया था। उस बाघ तक पहुंचने का मार्ग बनाने में ही कई घंटे लग गए और वह बाघ काल के गाल में समा गया। अलग-अलग जगह पर बाघ के लिए अलग-अलग हालात हैं, यह तय करना कठिन है कि कौन सा बाघ समस्या है। वन अधिकारी ही बताते हैं कि कई बार गलत आदमखोर को मार दिया गया या सलाखों के पीछे डाल दिया गया, उनकी सही पहचान भी नहीं हो सकी। ऐसा अक्सर लोगों के दबाव में किया गया।
भारत में 3,000 बाघ हैं। सड़क, रेल, बांध और अन्य परियोजनाओं के कारण टाइगर रिजर्व पर दबाव बढ़ रहा है, उनके इलाके सिमटते जा रहे हैं। ऐसे परिदृश्य में अपरिहार्य है कि वन विभाग बाघों की निगरानी व पहचान करने की अपनी क्षमता विकसित करे। निगरानी ही वह तरीका है, जिससे हम न केवल बाघों, बल्कि खतरनाक बाघों के व्यवहार को भी समझ सकते हैं। ऐसे ही दिशा-निर्देश तेंदुओं के लिए भी जारी होने चाहिए। वे बाघों से भी ज्यादा मारे जाते हैं। अभी उत्तराखंड में खतरनाक तेंदुओं को खोजा और मारा जा रहा है। उम्मीद है, नए दिशा-निर्देशों से बाघों व वन्य-जीवों की रक्षा में मदद मिलेगी। बाघों की निगरानी के लिए वन विभाग की आंतरिक क्षमता को बढ़ाना जरूरी है, ताकि बाघ और मानव के संघर्ष से बचा जा सके और न केवल लक्षणों, बल्कि मूल बीमारी का भी इलाज हो।
Source: Hindustan | Written by: नेहा सिन्हा, बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी
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