rise of India

भारतीयता के उभार का समय

जो सियासी दल सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे वही आज उन्हें अपनाने लगे

भारतीय मूल के अमेरिकी लेखक-पत्रकार फरीद जकारिया ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द पोस्ट अमेरिकन वर्ल्ड’ में लिखा है कि बीते कई दशकों तक अमेरिका का दुनिया में वर्चस्व रहा है, मगर 21वीं सदी में अमेरिका का दबदबा घटकर शक्ति का केंद्र चीन तथा भारत जैसे देशों की तरफ खिसकता जाएगा। जकारिया की इस अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में भारत के आंतरिक संदर्भ विशेषकर सांस्कृतिक-बौद्धिक विमर्श पर विचार करें तो मेरा मत है कि भारत के सांस्कृतिक-बौद्धिक विमर्श का केंद्र बिंदु मार्क्सवाद और तथाकथित ‘उदारवाद’ जैसी पश्चिमी चिंतनधारा की जगह भारत और ‘भारतीयता’ जैसे विचार लेते जा रहे हैं। दिलचस्प है कि सांस्कृतिक विमर्श में भारतीयता के तत्वों की पुनर्स्थापना एवं अनुगूंज राजनीतिक विमर्श में सुनाई पड़ने लगी है, जिसकी झलक फिलहाल जारी विधानसभा चुनावों में देखी भी जा सकती है।

To buy our online courses:  Click Here

 

चुनावी राज्यों में सांस्कृतिक और भावनात्मक मुद्दे उठाने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं

अमूमन कोई चुनाव किसी सरकार के पांच वर्षीय प्रदर्शन के आधार पर लड़ा जाता है, पर समाज की सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक जरूरतें भी होती हैं। इसलिए चुनावी संघर्ष में आर्थिक-सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ सांस्कृतिक और भावनात्मक मुद्दे भी राजनीतिक दल उठाते हैं। बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम आदि राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में सांस्कृतिक और भावनात्मक मुद्दे उठाने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है। अपवादों को छोड़ दें तो आज इन सांस्कृतिक-भावनात्मक मुद्दों के केंद्र में भारतीयता प्रमुख हो चली है, जिसकी उपेक्षा आजादी के बाद से ही मार्क्सवाद और तथाकथित ‘उदारवाद’ के पैरोकारों ने की। शुरुआत बंगाल से ही करते हैं।

बंगाल में वामदल और तृणमूल की सत्ता के दौरान हिंदू प्रतीकों की उपेक्षा की गई

चैतन्य महाप्रभु, कृतिबास ओझा, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की जन्मस्थली बंगाल में पहले मार्क्सवादी सरकार और बाद में तृणमूल कांग्रेस की सत्ता के दौरान भारत के परंपरागत हिंदू प्रतीकों के प्रति एक उपेक्षा या उदासीनता का भाव रहा। इसके पीछे मंशा थी मुसलमानों का छद्म तुष्टीकरण और उन्हें एक वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करना। स्वयं ममता बनर्जी ने 2019 में कहा था कि ‘हां, मैं तुष्टीकरण करती हूं. और ऐसा सौ बार करूंगी। जो गाय दुधारू है, उसकी दुलत्ती खाने में हर्ज नहीं।’ तुष्टीकरण के इस क्रम में विभिन्न पार्टियों ने इस्लाम के मजहबी और सांस्कृतिक प्रतीकों को बढ़ावा दिया, जिसमें जाने-अनजाने हिंदू प्रतीकों की उपेक्षा की गई।

ममता सरकार ने इमामों का मासिक वेतन शुरू किया, जबकि पंडित-पुजारी इससे वंचित रहे

तुष्टीकरण की इस प्रक्रिया में ममता सरकार ने 2012 से इमाम और मुअज्जिनों का मासिक वेतन शुरू किया, जबकि पंडित-पुजारी इससे वंचित रह गए। इतना ही नहीं बंगाल के सबसे बड़े सांस्कृतिक-र्धािमक आयोजन दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन पर वर्ष 2017 में मुहर्रम के कारण एक तरह से प्रतिबंध लगा दिया। वर्ष 2014, 2017 तथा 2018 में विभिन्न स्कूलों में सरस्वती पूजा आयोजन रोका गया, जबकि यह बंगाल की प्राचीन परंपरा रही है। मुस्लिमों को लुभाने के लिए श्रीराम के नाम से भी ममता चिढ़ती रही हैं।

‘जय श्रीराम’ के नाम पर ममता खीझती रही हैं, आज वही नारा पूरे बंगाल में गूंज रहा 

उल्लेखनीय है कि मुसलमानों का यह तुष्टीकरण भी केवल ऊपरी और दिखावटी चीज थी। इससे मुसलमानों का कोई भला नहीं हुआ। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट इसका साक्ष्य है, मगर इस भुलावे को मुस्लिम समाज कभी समझने की कोशिश नहीं करता। दूसरी तरफ मार्क्सवादियों और कथित ‘उदारवादियों’ के बहकावे में आकर भारतीय प्रतीकों के प्रति मुस्लिम समाज एक नकारात्मक या उदासीनता का भाव रखे रहा। जिस ‘जय श्रीराम’ के नाम पर ममता खीझती रही हैं, आज वही नारा पूरे बंगाल में गूंज रहा है। मार्क्सवादियों और तथाकथित ‘उदारवादियों’ को इसमें धार्मिक ‘पुनरुत्थानवाद’ नजर आता है, लेकिन यह कोई धार्मिक ‘पुनरुत्थानवाद’ नहीं है। कुछ हद तक यह ‘क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया’ जरूर है, लेकिन उससे ज्यादा यह भारतीयता और भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना है, जो श्रीराम के माध्यम से मर्हिष वाल्मीकि, तमिल संत एवं महाकवि कंब, जैन रचनाकार स्वयंभू (सत्यभूदेव) या बांग्ला कवि कृतिबास आदि ने कभी किया था। स्वयं अल्लामा इकबाल तक ने श्रीराम को ‘इमाम-ए-हिंद’ कहा था। भारतीयता का यह नवोत्थान मोदी सरकार के आने के बाद से पूरी तरह से उभरकर आया है। दिलचस्प है कि वे दल और बुद्धिजीवी जो कभी भारतीय प्रतीकों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे, जनता के दवाब में आज उन सांस्कृतिक प्रतीकों को अपनाने लगे हैं।

‘वंदे मातरम्’ का विरोध करने वाली ममता ‘वंदे मातरम्’ का नारा सभाओं में लगा रही हैं

राहुल गांधी को शिवभक्त बताया जाना या ममता द्वारा चंडीपाठ करना उसी दबाव का सूचक है। जिस ‘वंदे मातरम्’ को हिंदुत्व का पर्याय बताकर विवाद खड़ा किया जाता रहा है, आज ममता और उनकी तृणमूल ‘वंदे मातरम्’ का नारा लगभग अपनी हर सभाओं में लगा रही हैं। बंगाल ही नहीं, तमिलनाडु या केरल की राजनीति में भी ऐसे स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। कभी द्रमुक ने श्रीराम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाए थे, लेकिन आज उसी द्रमुक के लोग अपने अध्यक्ष एमके स्टालिन को रामराज्य का प्रशंसक बता रहे हैं। इसी तरह केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित 2018 की घटनाओं पर खेद व्यक्त करते हुए केरल सरकार में मंत्री के. सुरेंद्रन ने पिछले दिनों कहा कि ऐसा कभी नहीं होना चाहिए था।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के मूलभूत उद्देश्यों में भारतीयता की पुनर्स्थापना शामिल

भारतीयता एवं भारतीय दृष्टिकोण के बढ़ते प्रभाव को शैक्षिक-बौद्धिक विमर्श में भी देखा जा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के मूलभूत उद्देश्यों में भारतीयता की पुनर्स्थापना शामिल है। योग, आयुर्वेद और वैदिक गणित आदि का बढ़ता प्रभाव भारतीयता की पुनर्स्थापना का ही सूचक है। संस्कृति, धर्म, शिक्षा, इतिहास, पर्यावरण एवं स्त्री के प्रति दृष्टिकोण संबंधी भारत की अत्यंत प्राचीन, किंतु अत्यधिक प्रगतिशील परंपरा का महत्व देश ही नहीं, दुनिया भी धीरे-धीरे स्वीकार रही है। आगामी दौर भारतीयता के नवोत्थान का भी समय है। शंकालुओं को यह भली-भांति समझ लेना चाहिए।