बीती 14 सितंबर को सऊदी अरब के एक तेलशोधन केंद्र पर हुआ ड्रोन या मिसाइल हमला खाड़ी के तेल-परिवहन ढांचे पर हाल के महीनों में किए गए तमाम हमलों से अलग है। पहले के हमलों में तेल ढोने वाले जहाजों को निशाना बनाया गया था, पर इस बार सऊदी अरब का रोजाना 57 लाख बैरल तेल-उत्पादन प्रभावित हुआ है। यह उसके कुल उत्पादन का आधा हिस्सा है। इस कारण पांच फीसदी वैश्विक तेल आपूर्ति घट गई है। यह तनाव तब बढ़ा है, जब पश्चिम एशिया की शांति प्रक्रिया रुकी हुई है। जाहिर है, इस हमले से क्षेत्र में बड़ी जंग छिड़ सकती है, जिसके नतीजे क्षेत्र से बाहर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दिखेंगे।
यमन के विद्रोही गुट हूती ने हमले की जिम्मेदारी ली है, पर सऊदी अरब और अमेरिका ने इस बयान को अस्वीकार कर दिया है। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने ईरान को दोषी ठहराया और इसे ‘युद्ध की घोषणा’ बताया। सऊदी प्रवक्ता ने भी बताया कि मलबे से बरामद ड्रोन या मिसाइल के हिस्से ईरान-निर्मित हैं। मगर उन्होंने ईरान का सीधे तौर पर नाम नहीं लिया, लेकिन यह जरूर कहा कि कहां से ड्रोन या मिसाइल को लॉन्च किया गया होगा, उसकी जांच की जा रही है। उन्होंने इससे भी इनकार किया कि ये यमन से दागे गए थे।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सऊदी के क्राउन प्रिंस को फोन करके अमेरिका के समर्थन की बात कही। अपने पहले ट्वीट में राष्ट्रपति ने लिखा कि अमेरिका जवाब देने के लिए ‘तैयार’ है। मगर बाद के बयानों में वह संयमित दिखे। ट्रंप का नरम रुख उनके सहयोगियों को नागवार गुजरा है। सीनेटर लिंडसे ग्राहम का कहना है कि ईरान द्वारा अमेरिकी ड्रोन को मार गिराने की पिछली घटना के बाद सैन्य कार्रवाई को मंजूरी न देकर ट्रंप ने ईरान को और अधिक आक्रामक रुख अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने ईरानी रिफाइनरी पर हमले की वकालत भी की। हालांकि ट्रंप ने इसके जवाब में याद दिलाया कि अतीत में मध्य-पूर्व के संघर्ष में शामिल होने का अमेरिकी अनुभव सुखद नहीं रहा है। जाहिर है, वह 2003 के इराक युद्ध को याद कर रहे थे, जिसमें अमेरिका को काफी नुकसान हुआ था।
ईरान ने इस हमले में शामिल होने से इनकार किया है। इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉप्र्स (आईआरजीसी) के प्रमुख का कहना है कि यदि अमेरिका या सऊदी अरब ने किसी तरह का हमला किया, तो ईरान पूर्ण युद्ध की शुरुआत कर देगा। तीन दिन पहले ईरान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एडमिरल शामखानी ने भी यही कहा कि ईरान शांतिपूर्वक इस मसले का हल निकालना चाहता है, मगर किसी आक्रमण को कुचलने की क्षमता भी रखता है।
ट्रंप ने ईरान के राष्ट्रपति रोहानी से मिलने की पेशकश की है। यह प्रस्ताव सबसे पहले मई में जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे के मार्फत ईरानी नेतृत्व तक पहुंचाया गया था। इसे हाल ही में जी-7 की बैठक में भी दोहराया गया। संभव है, संयुक्त राष्ट्र आम सभा की आगामी बैठक में दोनों राष्ट्रपतियों की मुलाकात हो। हालांकि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामनेई ने यही कहा है कि अमेरिका जब तक ‘पछतावा’ जाहिर नहीं करेगा और अपनी तरफ से रद्द कर चुके परमाणु समझौते को दोबारा लागू नहीं करेगा, तब तक उसके नेता या किसी अन्य स्तर के अधिकारी के साथ कोई बैठक नहीं हो सकती। ईरान ऐसी किसी पहल में इसलिए रुचि नहीं दिखा रहा, क्योंकि पिछली अमेरिकी सरकार के परमाणु समझौते से ट्रंप प्रशासन पीछे हट गया था।
बहरहाल, 14 सितंबर के हमले के बाद ‘ब्रेंट तेल’ के दाम बढ़कर 71 डॉलर प्रति बैरल हो गए। यह तेल की कीमत में रिकॉर्ड 19 फीसदी बढ़ोतरी थी। उसके बाद से दाम 67 डॉलर प्रति बैरल के आसपास ठहरा हुआ है। भारत आने वाले कच्चे तेल की कीमत भी बढ़कर 65.11 डॉलर प्रति बैरल हो गई है। दो साल पहले यह औसतन 47 डॉलर प्रति बैरल हुआ करती थी। कच्चा तेल 10 डॉलर प्रति बैरल बढ़ने का अर्थ है, भारत के आयात-खर्च में एक लाख करोड़ रुपये की वृद्धि।
ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने हमले के लिए ईरान को जिम्मेदार मानने से इनकार किया है। वास्तव में, यह दरार ईरान परमाणु समझौते से अमेरिका के बाहर निकलने से आई है। इस समझौते को अमेरिका भले नहीं मान रहा, पर उसके यूरोपीय सहयोगी अब भी समझौते के साथ हैं।
आखिर विकल्प क्या है? यदि ईरान के खिलाफ अमेरिका या सऊदी अरब कार्रवाई करता है, तो जवाबी हमला होगा ही। बेशक अमेरिकी सैन्य ताकत पर किसी को संदेह नहीं, लेकिन खाड़ी में किसी प्रकार की जंग से सऊदी अरब के तेल प्रतिष्ठानों को भारी नुकसान पहुंच सकता है। ईरानी प्रतिष्ठान भले ही खत्म हो जाएं, लेकिन सऊदी अरब के विपरीत ईरान के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। फिर, ऐसी कोई जंग सिर्फ खाड़ी तक सिमटी नहीं रहेगी। हिज्बुल्लाह नेता नसरुल्लाह ने पहले ही जवाबी कार्रवाई की धमकी दे रखी है। उनके निशाने पर इजरायल होगा। सीरिया में अभी सीमित-युद्ध चल रहा है। इजरायल ने ईरानी ठिकानों पर 200 से अधिक हवाई हमले किए हैं। गाजा पट्टी में भी संघर्ष गहराता जा रहा है। इजरायल के हालिया चुनावों में कोई स्पष्ट जनादेश नहीं आया है। राजनीतिक अनिश्चितता में किसी भी तरह के साहसिक फैसले तक पहुंचना संभव नहीं होता। इसके बिना यहां शांति की वापसी नहीं हो सकती।
ऐसे संकेत भी हैं कि अमेरिका और ईरान के बीच बातचीत फिर से शुरू हो सकती है। ईरानी विदेश मंत्री जरीफ ने पिछले महीने न्यूयॉर्क में इस तरफ इशारा किया था। जरीफ ने कहा था कि मौजूदा समझौते का दायरा बढ़ाने को ईरान तैयार है, बशर्ते अमेरिका इसके बदले तमाम प्रतिबंध हटा ले। मगर आश्चर्यजनक तौर पर इसके तुरंत बाद अमेरिका ने जरीफ पर ही प्रतिबंध लगा दिया।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन को पद से हटाकर राष्ट्रपति ट्रंप ने फिर से उम्मीद जगाई कि अमेरिका अपने रुख में बदलाव करेगा। मगर हालिया हमला और दोनों पक्षों के बीच आक्रामक आरोप-प्रत्यारोप एक बड़ा झटका है। किसी सैन्य कार्रवाई से न सिर्फ कच्चे तेल की वैश्विक आपूर्ति प्रभावित होगी, बल्कि खाड़ी में मौजूद 70 लाख से अधिक आप्रवासी भारतीयों की सुरक्षा पर भी असर पड़ेगा। भारत तनाव शांत करने में अपनी भूमिका निभा सकता है। उसे दोनों पक्षों का विश्वास हासिल है।
Author : दिनकर पी श्रीवास्तव, ईरान में भारत के पूर्व राजदूत | नई दिल्ली
Source : हिन्दुस्तान | 20 Sep 2019