ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग उन्हीं आर्थिक नीतियों का परिणाम है, जो दुनिया को जलवायु परिवर्तन की त्रासदी दे रही है।
Revenge of the forest: अरण्य का प्रतिशोध क्या ऐसा ही होता है? यह हम ठीक से नहीं जानते। प्रकृति और वनों ने हमें बनाया है, हम उन्हें नहीं बना सकते हैं। फिर भी इतना तो कह ही सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी अभूतपूर्व आग में वहां की सरकार और उसकी ओछी राजनीति का दंड निहित है।
आज विज्ञान की दुनिया में इस पर कोई विवाद नहीं है कि पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन का एक ही कारण है- अंधाधुंध औद्योगिक विकास से लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाना। इन ईंधनों का उपयोग कम होने से ही इस अकल्पनीय आपात स्थिति की रोकथाम हो सकती है। साल-दर-साल ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में आग लगना बढ़ रहा है और जलवायु का विज्ञान कहता आया है कि ऐसा ही होगा। 30 साल से दुनिया के सभी देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत बातचीत कर रहे हैं। लेकिन ऑस्ट्रेलिया सरकार की मुख्य चिंता रही है, कोयले का उत्पादन और निर्यात।
कोयले के संसाधनों में ऑस्ट्रेलिया दुनिया में तीसरे स्थान पर है और कोयले के उत्पादन में भी। वहां पैदा बिजली का बहुत बड़ा हिस्सा कोयले को जलाने से आता है। इस महाद्वीप के आकार के देश की आबादी सिर्फ ढाई करोड़ के आसपास है, यानी दिल्ली और मुंबई की संयुक्त आबादी से भी कम। तब इतना कोयले का खनन वहां क्यों होता है? निर्यात के लिए। अंतरराष्ट्रीय बाजार में जो कोयला बिकता है, उसका 40 फीसदी सिर्फ ऑस्ट्रेलिया से आता है। जब-जब कोयले के उत्पादन और निर्यात पर अंकुश लगाने की बात हुई है, ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने कोयला उद्योग की तरफदारी की है।
कोयला जंगलों का ही एक रूप है। जो वन लाखों-करोड़ों साल पहले भूचाल से धरती में समा गए थे, वही कोयले का भंडार बन गए। कोयले के खनन से मुनाफा कमाने वाले ऑस्ट्रेलिया के जीवित जंगलों में सितंबर 2019 से दहक रही आग अब ढाई करोड़ एकड़ में फैल चुकी है। गडे़ हुए जंगल जलाने का नुकसान खडे़ हुए जंगल चुका रहे हैं। सितंबर 2019 में लगी जंगल की आग में लाखों वन्य प्राणी और लगभग 25 लोग मारे गए, न जाने कितने बदहवास होकर जान बचाने के लिए भाग रहे हैं। ये सब लालच की बलि चढे़ हैं।
आज भी ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन जलवायु परिवर्तन में अपने देश की जिम्मेदारी का सामना करने से बच रहे हैं। उनका राजनीतिक दल जलवायु परिवर्तन के विज्ञान को नकारने के लिए कुख्यात रहा है। ऑस्ट्रेलिया की राजनीति ऐसी है कि विपक्षी दलों पर भी कोयले का सम्मोहन है।
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दुनिया भर में कोयला और पेट्रोलियम जलाने से जो हवाई कार्बन वायुमंडल में छूटता है, उसमें ऑस्ट्रेलिया का हिस्सा छोटा ही है, 1़ 5 प्रतिशत से भी कम। मगर आबादी के अनुपात में देखें, तो ऑस्ट्रेलिया बडे़ देशों में सबसे ज्यादा हवाई कार्बन छोड़ता है, लगभग अमेरिका जितना। ऑस्ट्रेलिया अमीर देश है। छोटी आबादी और ढेर सारे प्राकृतिक संसाधनों की वजह से वहां का सामान्य जीवन और उद्योग बेहद खर्चीले तरीके से चलते हैं। वहां उस किफायत की जरूरत महसूस नहीं होती, जो गरीब देशों में रहने के लिए जरूरी है। यह सुविधाओं का नशा ही है।
वैसे ऑस्ट्रेलिया की जनता में जलवायु परिवर्तन और उसके कारणों की समझ है। इस पर एक राजनीतिक अभियान खड़ा करना आसान है। जंगलों की आग से तो यह चेतना और भी बढ़ी है। लोग वैज्ञानिकों की बातें समझ पा रहे हैं, क्योंकि वे उन्हें अनुभव कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया में सन 2019 आज तक का सबसे गरम साल रहा है। जंगल सूख गए हैं, मिट्टी और हवा से नमी गायब हो गई है। तेज हवाओं से एक छोटी-सी चिनगारी भी दावानल बन जाती है।
कुछ जगह यह चिनगारी बिजली कड़कने से लगी है, कुछ जगहों पर आग लगाए जाने की खबरें भी आई हैं। इतने अमीर देश और उसके अपार संसाधन भी आग को बुझा नहीं पा रहे हैं। और अभी तो जंगल में आग का दौर शुरू ही हुआ है। दक्षिणी गोलाद्र्ध में गरमी का सबसे तेज दौर जनवरी-फरवरी में आता है।
समझदार राजनेता इस विपदा के जवाब में एक अभियान खड़ा कर सकते हैं। ऑस्ट्रेलिया के अमीर लोगों को मना सकते हैं कि वे अपने उपभोग को घटाएं, ताकि हवाई कार्बन का उत्सर्जन कम किया जा सके। प्रकृति जो चेतावनी हमें दे रही है, उससे हम चेत जाएं। विकास की अनीति को रोकने के प्रयास ईमानदारी से करें। उसके लिए प्रकृति और समाज को उद्योग व मुनाफाखोरी से ज्यादा महत्व देना होगा। ऑस्ट्रेलिया जैसा देश यह न कर सका, तो फिर घनी आबादी वाले गरीब देशों को यह कैसे कहा जा सकता है कि वे ऐसे औद्योगिक विकास को रोकें?
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इसमें एक भयानक अन्याय छिपा हुआ है। जलवायु परिवर्तन का ऐतिहासिक जिम्मा यूरोप और अमेरिका के विकसित देशों पर है। लेकिन इससे होने वाले नुकसान सबसे ज्यादा उन गरीब देशों को भुगतने होंगे, जो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
वही देश, जिन्हें साम्राज्यवाद के दौर में यूरोप ने गुलाम बनाया गया था। जैसे भारत, बांग्लादेश और चीन। इन देशों की समृद्धि को चूसकर यूरोप खुशहाल और सफल बना है। ऐसा पूर्णतया संभव है कि इस जलवायु परिवर्तन से अमीर देशों को लाभ हो। अमेरिका, रूस और कनाडा जैसे देशों में बर्फ के पिघलने से जमीन का बड़ा हिस्सा खुल जाएगा, उसके नीचे के संसाधन इनके उपयोग में आ सकेंगे।
हमारे देश में अमीर-गरीब की विषमता बहुत बड़ी है। यह तय है कि जलवायु परिवर्तन से बाढ़ और अकाल का प्रकोप बढे़गा। हमारे गरीब लोगों पर ही इसकी मार पडे़गी, विकास का लाभ उठाते अमीर उद्योगों पर नहीं। जलवायु परिवर्तन सिर्फ पर्यावरण और विज्ञान की बात नहीं है। यह नए साम्राज्यवाद से जन्मी एक सामाजिक आपदा भी है।
Source : हिन्दुस्तान| सोपान जोशी
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