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Live in Relationship

Live in Relationship : सहजीवन की राह में कायम उलझनें

लिव इन रिलेशनशिप यदि सही होती तो इसमें रह रहे जोड़ों को अक्सर अदालती दरवाजे नहीं खटखटाने पड़ते

शर्तों पर टिके रिश्तों की आयु लंबी नहीं होती। अगर वैवाहिक रिश्ते वर्चस्व की चाह से परे प्रेम और समानता की आधार भूमि पर आ खड़े हो जाएं तो संभव है कि सहजीवन के प्रति युवा पीढ़ी का आकर्षण कम हो जाए।

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सहजीवन (लिव इन रिलेशनशिप) को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि अगर विवाहित महिला दूसरे पुरुष के साथ पत्नी की तरह रहती है तो इसे लिव इन रिलेशनशिप नहीं माना जा सकता। विवाहित होते हुए भी अलग पुरुष अथवा स्त्री के साथ रहने पर वह व्यक्ति भारतीय दंड संहिता की धारा 494/495 के अंतर्गत अपराधी है। न्यायालय की यह टिप्पणी स्पष्ट करती है कि विवाहित होते हुए भी किसी अन्य के साथ सहजीवन में रहना अपराध है। इस पूरे संदर्भ में देखा जाए तो विवाहित होते हुए भी किसी स्त्री या पुरुष का किसी अन्य के साथ सहजीवन में रहना अनुचित है, जबकि सामाजिक और वैधानिक रूप से विवाह को जीवनपर्यंत निभाने की बाध्यता नहीं है। अगर विवाह संबंधों में कोई भी एक साथ नहीं रहना चाहता तो वह न्यायालय में संबंध विच्छेद की अपील कर सकता है। यह कानूनी अधिकार प्राप्त होने पर भी बिना संबंध विच्छेद किए नवीन संबंधों की स्थापना करना वैधानिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार ही नहीं, अपितु अपनी स्वतंत्रता और स्वच्छंदता को स्थापित करने की कुचेष्टा भी है।

2010 में सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता दी थी

उल्लेखनीय है कि 2010 में उच्चतम न्यायालय ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता दी थी। उसने 2013 में सहजीवन को लेकर एक गाइडलाइन भी जारी की थी। उसके मुताबिक जो रिश्ता पर्याप्त समय (लंबे समय) से चल रहा है वह इतना होना चाहिए कि टिकाऊ माना जा सके। इन दिनों सहजीवन के रिश्ते विवाह के विकल्प के तौर पर देखे जाने लगे हैं, परंतु इन संबंधों की परिधि स्वयं में इतनी अस्पष्ट है कि इसमें रह रहे जोडे़ स्वयं यह नहीं समझ पाते कि आधिकारों और दायित्वों की लक्ष्मण रेखा कहां तक है? नतीजतन ऐसे रिश्ते कुछ समय बाद कड़वाहट से भर जाते हैं। इन रिश्तों को अमूमन एक ऐसे समझौते के रूप में आरंभ किया जाता है जहां संबंधों से इतर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व दिए जाने की बात हो, पर ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि जहां संबंध हैं वहां अपेक्षाएं स्वत: जुड़ जाती हैं। इसमें किंचित संदेह नहीं कि इन रिश्तों से अलग होने में किसी कानूनी उलझन का सामना नहीं करना पड़ता, पर सामाजिक और मानसिक पीड़ा उनके हिस्से में भी आती है। जीवन स्वतंत्रता के नाम पर सहजीवन की पैरवी अगर वाकई र्तािकक होती तो सहजीवन में रह रहे जोडे़ आरोप-प्रत्यारोप के साथ देश भर के न्यायालयों में समय-समय पर दरवाजे नहीं खटखटाते।

सहजीवन का रिश्ता सिर्फ वैधता का मामला है या नैतिकता और सामाजिकता का

सवाल है कि सहजीवन का रिश्ता सिर्फ वैधता का मामला है या नैतिकता और सामाजिकता का भी? यह सर्वविदित सत्य है कि स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं और इस पूरकता को आधार तथा संबलता देने के लिए विवाह का अस्तित्व मानव सभ्यता के आरंभ के कुछ समय पश्चात ही स्थापित हो गया था। विवाह का तात्पर्य दो विपरीत लिंगियों को कुछ सामाजिक एवं वैधानिक प्रक्रियाओं का निर्वाहन कर साथ रहना ही नहीं, बल्कि दायित्वों का निर्वाहन भी है। जहां प्रेम, त्याग, समझौते के साथ-साथ समर्पण भी है, परंतु संस्कृति संक्रमण, भौतिकवादी दृष्टिकोण, अंतहीन महत्वाकांक्षाओं और परंपराओं के विरुद्ध जाकर कुछ अलग साबित करने की चाह में महानगरीय संस्कृति ने विवाह संस्था की नींव पर ही सेंध लगा दी है। युवा पीढ़ी अब बिना किसी समझौते, दायित्व और त्याग के एक उन्मुक्त बंधनहीन जीवन जीने की इच्छुक दिखाई देती है। यहां मसला सिर्फ युवा पीढ़ी की सोच का ही नहीं है, अपितु साथ ही पारंपरिक वैवाहिक जीवन में बढ़ती हुई जटिलताओं का भी है।

रिश्ते के साथ सुरक्षा की भावना भी जरूरी है

कानूनी बाधाओं के चलते जहां पुरुष विवाह के नाम से हटने लगे हैं, वहीं स्त्रियों के लिए विवाह एकतरफा दायित्व का निर्वाहन बनकर रह गया है। जहां सर्वाधिकार पुरुषों के पास है और उनके हिस्से में अंतहीन दायित्व। अपने-अपने दायरों को तोड़ने को उद्धृत युवा पीढ़ी को सहजीवन सहज और आसान राह प्रतीत हुई है। उसने इसे अपना भी लिया है। बिना यह सोच विचार की प्रेम कितना भी गहरा क्यों न हो, वह समर्पण, त्याग और दायित्व निर्वहन के बिना एक समय के पश्चात अपना अस्तित्व खो देता है। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि रिश्ते के साथ उसमें सुरक्षा की भावना का होना जरूरी है। सहजीवन में रह रहे जोड़ों को हमेशा से ही इसका अभाव खलता है, जो कि इन जोड़ों को येन केन प्रकारेण अपने अधिकारों के लिए कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है।

शर्तों पर टिके रिश्तों की आयु लंबी नहीं होती

सहजीवन के साथ एक विरोधाभास भी जुड़ा हुआ है। एक ओर परंपरागत सोच एवं नियमों को दरकिनार करके पुरुष और स्त्री विवाह किए बगैर एक साथ रहने का कदम उठाते हैं। विशेषकर महिलाएं जिन्हें आज भी भारत जैसे पुरुष सत्तात्मक देश में ऐसा कदम उठाने के लिए साहसी कहना अनुचित नहीं होगा। वहीं दूसरी ओर आर्थिक तौर पर अपने पुरुष साथी पर निर्भरता और अलगाव के समय उनसे गुजारे भत्ते की मांग उन्हें उसी परंपरागत श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है, जहां से अलग होने के लिए उन्होंने सहजीवन पद्धति को स्वीकारा था। प्रश्न यह नहीं है कि सहजीवन कितना सही या गलत है? प्रश्न यहां यह है कि युवा पीढ़ी को रिश्तों की गंभीरता को समझना होगा? यह स्वीकारना होगा कि शर्तों पर टिके रिश्तों की आयु लंबी नहीं होती। इसमें दो राय नहीं कि विवाह सर्वस्वीकार्य संस्था है। अगर वैवाहिक रिश्ते वर्चस्व की चाह से परे प्रेम और समानता की आधार भूमि पर आ खड़े हो जाएं तो संभव है कि सहजीवन के प्रति युवा पीढ़ी का आकर्षण कम हो जाए। और फिर भविष्य में हमें सहजीवन के रिश्तों की जटिलताओं को समझाने का प्रयास भी नहीं करना पड़ेगा।

लेखिका: ऋतु सारस्वत  ( सामाजिक विज्ञान प्रोफेसर )