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NPR नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर आबादी का सर्वे

NPRनेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर NPR एक ऐसी कवायद है, जिसे अगले साल शुरू होना ही था। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस कवायद के लिए मंगलवार को हरी झंडी दिखा दी। 8,500 करोड़ रुपये की लागत से होने वाली यह कवायद अगले साल अप्रैल से या यूं कहें कि अगले वित्त वर्ष के साथ ही शुरू हो जाएगी।

पिछली बार यह कवायद 2010 में हुई थी, जिसके बाद 2015 में इसे अपडेट किया गया था। तब माना गया था कि यह अपडेट आधार के लिए किया गया है। नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर और कुछ नहीं, लोगों की रिहाइश को सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज करने का अभियान होता है।

इसके लिए सरकारी प्रतिनिधि हर घर में जाकर वहां रहने वालों का ब्योरा दर्ज करते हैं। इसमें उन लोगों का ब्योरा भी दर्ज होता है, जिनका कोई घर नहीं है, या फिलहाल वे अपने स्थाई घर पर नहीं हैं। अगले साल हम आबादी का यह राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करेंगे, उसके अगले ही साल देश में राष्ट्रव्यापी जनगणना होगी।

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केंद्रीय मंत्रिमंडल का यह फैसला एक तरह का रूटीन फैसला है और पहली नजर में यह कहीं से भी विवादास्पद नहीं दिखता। लेकिन इस समय देश में जिस तरह का विमर्श जारी है और जिस तरह के आंदोलन चल रहे हैं, उनमें यह फैसला भी एक नया विवाद खड़ा करेगा। बल्कि एक तरह से विवाद केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस फैसले से पहले ही खड़ा हो चुका है।

नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देश भर में यह चर्चा चल पड़ी थी कि सरकार जल्द ही असम की तरह का अखिल भारतीय नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप तैयार करना शुरू करेगी। इसे लेकर देश भर में इतना ज्यादा विरोध हुआ कि रविवार को खुद प्रधानमंत्री को दिल्ली के रामलीला मैदान से देश को यह बताना पड़ा कि ऐसा कोई काम केंद्र सरकार शुरू नहीं करने जा रही है और न ही ऐसा कोई फैसला किया गया है।

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नागरिकता रजिस्टर की चर्चा के बीच ही यह बात भी कही गई थी कि इसके पहले चरण में सरकार आबादी का रजिस्टर तैयार करेगी, जबकि वह एक पुरानी कवायद है और उसका नागरिकता कानून या रजिस्टर से कोई लेना-देना नहीं है।

इन्हीं सारे तर्कों के बीच पश्चिम बंगाल सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह अपने प्रदेश में नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर की कवायद नहीं होने देगी। तुरंत ही विपक्षी दलों के शासन वाले प्रदेशों ने एक के बाद एक खुद को इस कवायद से बाहर रखने की घोषणा कर दी। इसके चलते एक सामान्य सा सरकारी काम बेवजह बड़े विवाद में फंस गया है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि राज्य सरकारें सहयोग नहीं करतीं, तो केंद्र के सामने क्या विकल्प होंगे।

हालांकि कुछ ऐसे सवाल भी हैं, जो इस राजनीतिक विवाद से अलग भी उठाए जा सकते हैं। अब हम जल्द ही नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर की तैयारी शुरू कर देंगे। उसके बाद जनगणना का वक्त आएगा। मतदाता सूचियां भी हर कुछ समय पर तैयार होती ही रहती हैं। आधार का अपना एक विशाल डाटाबेस है। हो सकता है कि आगे चलकर ऐसी ही कुछ और कवायद करनी पड़ें। यहां जरूरी सवाल यह है कि क्या इन सारी कवायदों को एक साथ जोड़ा नहीं जा सकता?

सूचना तकनीक के युग में इतने अलग-अलग डाटाबेस की जरूरत क्यों पड़ रही है? क्या सिर्फ इसलिए कि नौकरशाही की मानसिकता अभी कंप्यूटर और सूचना तकनीक के युग में नहीं पहुंची?

Source: हिन्दुस्तान

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