भारत में पश्चिमी देशों के विद्वानों का महिमा मंडन

विद्वानों को सम्मान

प्रदेश के विश्वविद्यालयों और डिग्री कॉलेजों में स्नातक के सभी विषयों का पहला पाठ अब अनिवार्य रूप से ज्ञान परंपरा से संबंधित होगा।

संबंधित विषय में भारतीय शिक्षाविदों व वैज्ञानिकों के योगदान से भी शिक्षक अब विद्यार्थियों को अवगत कराएंगे। नई शिक्षा नीति के तहत इस प्रकार के बदलाव निश्चित रूप से भारतीय विद्तजन को सम्मान प्रदान करने वाले होंगे, जिसके वे वास्तव में हकदार हैं। साथ ही छात्रों को भी अपने देश की मेधा से परिचित होने का शुभ अवसर मिलेगा।

अब तक जाने कितने ऐसे शिक्षक और वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय योगदान दिया, लेकिन गुमनामी के साये से बाहर नहीं निकल पाए। कहना गलत नहीं होगा कि वह अपेक्षा का शिकार बने रहे। किसी संदर्भ में विदेशी विद्वानों के विचारों को बढ़ा-चढ़ाकर उद्धत किया जाता है,जबकि अपने देश- प्रदेश में उनसे बड़े विचारक हुए हैं या हैं । खासकर इतिहास और दर्शन के विद्वानों के साथ इस प्रकार की उपेक्षा कुछ ज्यादा ही हुई है। यह कुछ और नहीं, बल्कि घर के लोगों की उपेक्षा और कभी विश्व गुरु कहे जाने वाले भारत में पश्चिमी देशों के विद्वानों का महिमा मंडन ही कहा जाएगा ।

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सरकार के इस निर्णय से आने वाली भावी पीढ़ी देश के विद्वानों की उपलब्धियों का अध्ययन कर न केवल गौरवान्वित होगी, बल्कि उनके पद चिन्हों पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी मिलेगी, ललक बढ़ेगी। मुट्ठी भर लोगों को अगर छोड़ दिया जाए तो शिक्षा नीति में बदलाव की प्रतीक्षा लंबे समय से की जा रही थी। पूर्व में ऐसा कई बार जानने – सुनने को मिल चुका है कि फलां भारतीय पूरोधा पुरोधा के जीवन परिचय को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। कुछ दिन के शोरगुल के बाद मामला ठंडा पड़ जाता है। बदलती सरकारों के साथ इस तरह की कोशिशों पर पूरी तरह अंकुश लगाया जाना चाहिए । उम्मीद की जानी चाहिए कि ये पाठ स्वदेश से प्यार बढ़ाएंगे और शिक्षानीति की सार्थकता को सिद्ध करेंगे।

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