खेती योग्य भूमि का आधे से भी कम हिस्सा सिंचाई सुविधा संपन्न है, बाकी वर्षा पर निर्भर
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने विश्व जल दिवस के अवसर पर कैच द रेन अभियान की शुुरुआत की। इस मौके पर उन्होंने केन-बेतवा को लिंक नहर से जोड़ने के कदम का भी उल्लेख किया। कैच द रेन यानी हर बूंद को सहेजने सरीखे अभियान इसलिए आवश्यक हो गए हैं, क्योंकि भारत में विश्व का सिर्फ 2.4 प्रतिशत भौगोलिक भू-भाग और करीब चार प्रतिशत जल संसाधन हैं। इनकी मदद से देश विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या की सारी आवश्यकताएं पूरी करता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि हमारी कुल खेती योग्य भूमि का आधा से भी कम हिस्सा ही समुचित सिंचाई सुविधा संपन्न है, बाकी खेती योग्य भूमि वर्षा पर निर्भर है। हमारी बढ़ती हुई जनसंख्या एवं घटती हुए कृषि योग्य भूमि की मौजूदा परिस्थितियों में कृषकों के ऊपर भारी दबाव है। यह भी ध्यान रहे कि भावी खेतिहर पीढ़ी में भविष्य को लेकर असुरक्षा की भावना है। इन परिस्थितियों से उबरने के लिए मानसून पर अपनी खेती की निर्भरता को कैसे कम किया जाए, इस पर चिंतन की बड़ी आवश्यकता है। इस कड़ी में केंद्र और सभी राज्य सरकारों को विज्ञानियों के साथ मिलकर कुछ ऐसा करना-सोचना होगा कि देश की लाखों हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि स्वस्थ मृदा, सिंचाई एवं समुचित जल निकासी सुविधा से संपन्न हो जाए।
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आज जब मोदी सरकार किसानों को आत्मनिर्भर करने का संकल्प ले रही है, तब यह जरूरी है कि किसानों की इंद्र देव पर निर्भरता कम की जाए। आज के परिप्रेक्ष्य में यह बहुत मुश्किल भी नहीं है। यदि हम भारतीय कृषि की विकास दर को चार से पांच प्रतिशत करना चाहते हैं और इस मामले में विकसित देशों की सूची में शामिल होना चाहते हैं तो अपने किसानों एवं कृषि मजदूरों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना ही होगा। इस सिलसिले में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि देश में अब तक सिंचाई एवं जल निकासी तंत्र से संबंधित जो भी आधारभूत सुविधाएं विकसित हुई हैं, वे अभी अपर्याप्त हैं। जून 2015 में प्रधानमंत्री ने देश में दूसरी हरित क्रांति की जरूरत जताते हुए कहा था कि इसकी शुरुआत पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, ओडिशा आदि से करनी होगी। उन्होंने यह भी कहा था कि खेत और शरीर एक जैसे हैं। जैसे शरीर की कमियों की जांच के लिए विभिन्न प्रकार की प्रयोगशालाओं का सहारा लिया जाता है, वैसे ही खेतों की मिट्टी की जांच के लिए भी समुचित संख्या में प्रयोगशालाएं होनी चाहिए, ताकि प्रत्येक खेत की मिट्टी का हेल्थ कार्ड बन सके।
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यह एक गलत धारणा है कि खेत में लबालब पानी होगा, तभी खेती से अच्छा उत्पादन हो सकेगा। दूसरी हरित क्रांति को सफल बनाने के लिए एक आदर्श सिंचाई एवं जल निकासी का संजाल कैसा होना चाहिए, इसकी रूपरेखा तैयार है। सिंचाई एवं जल निकासी तंत्र का मूल तत्व मानव शरीर में विद्यमान शिरा एवं धमनियों के संजाल पर आधारित है। जिस तरह शरीर में विद्यमान प्रत्येक कोशिकाओं को नपा-तुला पोषक तत्वों से मिश्रित रक्त मिलता है, उसी तर्ज पर लघु किसानों के छोटे-छोटे भू-क्षेत्रों को भी पूरे वर्ष निरंतर सिंचाई के लिए जल एवं उस जल की निकासी के लिए आधारभूत सुविधाएं मिलनी चाहिए। इस रूपरेखा को क्रियान्वित करने से ही हमारी खेती सुधरेगी। यदि प्रत्येक किसान के खेत को पूरे वर्ष निरंतर पानी मुहैया करा दिया जाए तो वह हमेशा उसमें कोई न कोई फसल उगाकर उसे हरा-भरा रख सकता है। वह भी दूसरों की तरह हर महीने अपने लिए आमदनी का जरिया बना सकता है। फलस्वरूप किसानों की आय भी दोगुनी होगी।
सभी का पेट भरने के लिए दूसरी हरित क्रांति की रूपरेखा को जमीन पर उतारना होगा
अगले एक दशक में भारत में इतनी जनसंख्या हो जाएगी कि सभी का पेट भरने के लिए 30 करोड़ टन से भी अधिक अनाज की आवश्यकता पड़ेगी। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भी उक्त रूपरेखा को जमीन पर उतारना होगा। इसके लिए केंद्र सरकार ने समुचित प्रारंभिक राशि आवंटित करने के साथ माइक्रो इरिगेशन फंड का सृजन किया है। भारत ने पिछले 70 वर्षों में सिंचाई का एक व्यापक तंत्र खड़ा किया है। सिंचाई की सुविधा के मामले में हम विश्व में प्रथम स्थान पर हैं, लेकिन इस तंत्र के विधिवत रखरखाव में हम उतने अच्छे नहीं हैं। इसमें प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के माध्यम से और प्रगति करनी होगी। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि आज चारों ओर इस बात पर बल दिया जा रहा है कि जल एक अमूल्य संसाधन है। अत: सिंचाई जल के व्यावहारिक मूल्य का भी निर्धारण होना चाहिए। इस तरह जलोपयोग दक्षता वृद्धि के फलस्वरूप पानी की जो अतिरिक्त बचत होगी, उससे असिंचित खेती को सिंचित खेती में बदला जा सकेगा। इससे सिंचाई जल उपलब्धता में सीधे वृद्धि हो जाएगी।
जल का संरक्षण और जल सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी
आज जरूरत इसकी है कि प्राकृतिक संसाधन के रूप में जल को सभी उपभोक्ताओं के सहयोग से विधिवत रूप से इस्तेमाल में लाया जाए। विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान के उपरांत उत्कृष्ट कार्य नीतियां बनाई जाएं, ताकि उपलब्ध जल के संरक्षण एवं दीर्घकालिक जल सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। सिंचाई जल की उपलब्धता को बढ़ाने की दिशा में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा भी पर्यावरण अनुकूलित मल-जल (सीवेज) उपचार प्रौद्योगिकी पर आधारित 75 हजार लीटर प्रतिदिन क्षमता वाले एक स्वदेशी संयंत्र को विकसित किया गया है। यह तकनीक कम लागत वाली है। पूर्ण रूप से पर्यावरण हितैषी है, जिसे एक सामान्य गांव का किसान भी चला सकता है। इसके इस्तेमाल में किसी रसायन की न जरूरत पड़ती है, न कोई गाद या तलछट बनती है। इससे गांव-गांव, छोटे-बड़े कस्बों के आसपास सिंचाई जल की उपलब्धता बढ़ाई जा सकेगी।