आखिरकार जम्मू से रोहिंग्याओं की विदाई की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। कहां म्यांमार, कहां जम्मू। सबको मालूम है कि ये जम्मू में आबादी का अनुपात बदलने के अभियान के तहत लाए गए थे। उनके आधार, वोटर आइडी, राशन कार्ड भी बनने लगे थे। आबादी के आनुपातिक परिवर्तन के इस अभियान से जम्मू, बंगाल और नेपाल सीमा क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। चूंकि जिलाधिकारियों को नई बसावट या नए व्यक्तियों के संपत्ति क्रय पर शासन को नियमित रिपोर्टिंग का कोई निर्देश ही नहीं है तो जाहिर है कि अवैध आप्रवासियों का कोई नियमित विवरण राज्य स्तर पर भी उपलब्ध नहीं होगा। कायदे से प्रदेशों के गृह विभाग में इस अहम विषय के लिए एक विंग होना चाहिए। जिला कार्यालयों के पास ऐसी नियमित जानकारी नहीं होती कि कितने नए आधार या वोटर कार्ड प्रतिमाह उनके यहां बन रहे हैं। इसीलिए अचानक ऐसी कोई खबर चलती है तो अफरातफरी फैलती है। यदि जिलाधिकारी कार्यालय से नियमित प्रारूप पर सूचनाएं मांगी जाने की व्यवस्था होती तो आज राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का कार्य कितना सरल और निर्विवाद होता।
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रोहिंग्या के जम्मू में ठिकाना बना लेने के संदर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल के मुस्लिमों ने जिन्ना का पाकिस्तान तो बनवाया, पर वे वहां जाने के बाद यहीं रह गए। गांधी जी ने जब 21 अगस्त, 1947 को लाखों लोगों की सभा में भारत के साथ पाकिस्तान का भी झंडा फहरा दिया तो वे आश्वस्त हो गए। गांधी जी और नेहरू ने विभाजन तो मान लिया, लेकिन अनुपालन आधा ही होने दिया। आजादी के बाद लगातार चल रहे आबादी स्थानांतरण को अचानक नेहरू-लियाकत पैक्ट, 1950 के तहत रोक दिया गया। अब पाकिस्तान से कोई हिंदू-सिख भारत नहीं आ सकता था और भारत से जा रहे मुस्लिम परिवारों को भी रोक दिया गया। पाकिस्तान के लिए यह पैक्ट दो तरह से उपयोगी था। वह जल्द ही अपनी हिंदू आबादी को 23 प्रतिशत से घटाकर छह प्रतिशत पर ले आया। जो बाकी बचे, उन पर उसे विश्वास था कि वे मजहब बदल लेंगे या महत्वहीन होकर रहेंगे। जिन्ना के लिए भारत से पाकिस्तान आ रहे मुसलमानों को रोक देना जरूरी था। जिन्ना जानते थे कि यदि भारत से मुस्लिम आते गए तो पाकिस्तान असफल राज्य बनकर रह जाएगा। इसलिए एक नीति के तहत 11 अगस्त, 1947 को जिन्ना द्वारा पकिस्तान की नेशनल एसेंबली में छद्म सेक्युलरिज्म की बातें की गईं। भारत से मुस्लिम समाज का प्रस्थान रोकने के काम में नेहरू-गांधी के साथ 11 अगस्त के जिन्ना के भाषण का भी बड़ा योगदान था।
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कभी जिन्ना के बहुत निकट रहे मुहम्मद करीम छागला ने अपनी आत्मकथा ‘रोजेज इन दिसंबर’ में लिखा है कि जब जिन्ना से उन्होंने पूछा कि पाकिस्तान में मुस्लिम बहुमत के राज्यों को लाने के लिए तो आप लड़ रहे हैं, लेकिन जहां वे अल्पसंख्यक हैं, वहां उनका क्या होगा? जिन्ना का यह जवाब सुनकर वह अवाक रह गए कि ‘वे अपना भविष्य खुद तलाशें, मुझे उनके भाग्य से कोई वास्ता नहीं है।’ ऐसे एहसानफरामोश थे जिन्ना, जिन्हें मालूम था कि उत्तर भारत का मुसलमान साथ न आता तो पाकिस्तान कभी बन ही नहीं सकता था।
विभिन्न स्तरों पर चलाई जा रही हैं भारत को खंडित करने की साजिशें
1950 के नेहरू-लियाकत पैक्ट के बाद पाकिस्तान के ख्वाब में सक्रिय भागीदार बहुत से लोग यहीं रह गए। हमारे सेक्युलर नेताओं ने उन्हें यहीं पर पाकिस्तान जैसा माहौल देने का वायदा किया। चूंकि उन्हें भारतीय राष्ट्रवादी बना देने से उनके वोटों की कोई गारंटी नहीं होती इसलिए प्रारंभिक नेतृत्व ने उन्हें एक वोट बैंक में तब्दील करना ही बेहतर समझा। यह स्थिति पाकिस्तानी एजेंडे के भी बहुत अनुकूल थी। भारत ने उन्हें यहीं रोककर पाकिस्तान की आबादी का बोझ कम कर दिया। चूंकि वह इस्लामिक देश है तो उसे कश्मीर हर हाल में चाहिए था। उसने पहले ही हमले में कश्मीर का 86 हजार वर्ग किमी क्षेत्र अपने कब्जे में ले लिया। नेहरू ने भूमि वापस लेने के बजाय पाकिस्तान का तुष्टीकरण करते हुए सुरक्षा परिषद से स्वयं ही युद्धविराम कराया। आज उसी पाकिस्तान की नीति भारत को हजार घाव देने की है। अत: भारत को खंडित करने की साजिशें विभिन्न स्तरों पर चलाई जा रही हैं। उन राष्ट्रनिरपेक्ष क्षेत्रीय दलों का उपयोग बखूबी किया जा रहा है, जिनकी पहली प्राथमिकता राज्य की सत्ता है। हम महाराष्ट्र का नया अवतार देख ही रहे हैं।
पाकिस्तान मामलों की विशेषज्ञ क्रिस्टीन फेयर अपनी पुस्तक ‘फाइटिंग टू द एंड’ में लिखती हैं कि दुनिया में पाकिस्तानी सेना अकेली ऐसी सेना है, जिसके पास एक मुल्क है। वह पाकिस्तान की ही नहीं, इस्लाम की भी स्वयंभू रक्षक है। उसका संघर्ष हिंदू इंडिया से है। इतिहास गवाह है कि हमने सिर्फ आने के रास्ते ही बनाए थे, जाने के नहीं। यह पहली बार है कि स्थितियों में गुणात्मक अंतर आने लगा है। इसलिए भीषण प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं।
रोहिंग्या की तरह बांग्लादेशी भी फर्जी कागजों के बावजूद चले जाएंगे अपने वतन वापस
यह तो कल्पना में ही नहीं था कि शेष भारत का मुस्लिम नेतृत्व अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध करेगा। उसे तो इसका स्वागत करना चाहिए था कि कश्मीर का मुस्लिम समाज शेष भारत के मुस्लिम समाज के साथ एकीकृत होने जा रहा है, लेकिन उसका विरोध आंखें खोलने वाला रहा। फिर सीएए, एनआरसी का विरोध हुआ। गंगा-जमुनी आदर्शों के पीछे मेहनत से छिपाए गए चेहरों की असलियत अपने एजेंडे सहित शीशे की तरह साफ होकर उभर आई है। देश को इन नई परिस्थितियों के लिए अपने को तैयार करना है। अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद रोहिंग्याओं की वापसी की तैयारी आजाद भारत की ऐतिहासिक घटना है। यह वापसी प्रारंभ हुई है तो उम्मीद बंधी है कि अब एनआरसी लागू होगा और रोहिंग्या की तरह बांग्लादेशी भी फर्जी कागजों के बावजूद अपने वतन वापस चले जाएंगे, लेकिन इसके पहले हमें उन्हें संरक्षण देने वालों को बेनकाब करना होगा।