महान राजनेता मुस्तफा कमाल अतातुर्क के समय से भारत के प्रति तुर्की के रवैये में तेजी से अंतर आया। उस समय भारतीयों ने स्वतंत्र नहीं होने के बावजूद तुर्की के साम्राज्य और उसके शासक खलीफा के राज को बचाने के लिए खिलाफत आंदोलन शुरू किया था। भारतीय इस प्रयास में सफल नहीं हुए लेकिन उनके उद्देश्य और संकल्प को तुर्की के सभी लोगों ने कृतज्ञता की भावना के साथ स्वीकार किया और सराहा। तुर्की के राजनयिकों और राजनेताओं द्वारा समय-समय पर उन महान भावनाओं को व्यक्त किया गया है।
80 के दशक के अंत और नब्बे के दशक की शुरुआत तक तुर्की को उदार मुस्लिम राष्ट्र के रूप में देखा जाता था। उस समय तक तुर्की भारत और पाकिस्तान के साथ समान रूप से अच्छे संबंध रखता था। लेकिन उस अवधि के बाद तुर्की ने एक रूढ़िवादी विचारधारा को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। इस्लामी देशों के सामने अपने चरमपंथी इस्लामिक स्वरुप को साबित करने के लिए तुर्की ने पाकिस्तान की ओर झुकाव दिखाना शुरू कर दिया। इसका परिणाम तब सामने आया जब बहुत पहले बिना किसी कारण के तुर्की ने भारत और पाकिस्तान के बीच “कश्मीर मुद्दे को सुलझाने” के लिए मध्यस्थता करने की पेशकश की। जिसे भारत ने स्वाभाविक रूप से ठुकरा दिया। भारत को यकीन था कि ऐसा करने पर तुर्की निकट भविष्य में ऐसा सपना देखने से परहेज करेगा। यह तुर्की का रूढ़िवादी इस्लामी रवैया है, जिसके कारण वह भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करता है।
Source: Quora
Author: Harsh Manral, Rtd. Indian Ambassador to the Democratic Republic