अफगानिस्तान में तालिबानी वर्चस्व के खतरे: भारत तालिबान से संपर्क साधने की कोशिश में, लेकिन बेहतर होने की संभावनाएं बहुत कम
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अफगान समस्या आखिर है क्या? अफगानिस्तान में भारत की क्या भूमिका है? आज ऐसे कई सवाल उभर आए हैं। अफगानिस्तान की विकास योजनाओं-सड़क, बांध, स्कूल, अस्पताल, संसद भवन आदि के निर्माण में हमारी भूमिका रही है। शांतिकाल में तो भारत अफगानों में बहुत लोकप्रिय है, लेकिन जब सत्ता के जमीनी समीकरण की बात आती है तो इस्लामिक अफगानिस्तान में हमारी कोई भूमिका नहीं बनती। रणनीति हमारे गांधीवादी नेतृत्व का विषय कभी रहा ही नहीं। जब पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया तो हमारे पास अफगानिस्तान के लिए कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर ही एक रास्ता बचता था। उसके पाकिस्तान के पास जाने से वह रास्ता भी हाथ से निकल गया। पाकिस्तान से हुए युद्धों में हमारे पास गिलगित-बाल्टिस्तान को उसके कब्जे से मुक्त कराने के बड़े अवसर आए, पर न तो इच्छाशक्ति थी और न ही कोई रणनीतिक सोच। वरना आज चीन का सीपैक प्रोजेक्ट तो अस्तित्व में ही न आ पाता। अफगानिस्तान को देखने का दुनिया का और हमारा नजरिया अलग है। यह क्षेत्र जिसे हमारा इतिहास गांधार, कंबोज के नाम से जानता रहा है, भारत का ऐतिहासिक पश्चिमी प्रवेश द्वार था। हूण-कुषाण भी इन्हीं क्षेत्रों में आकर बसे। पर्वतीय दर्रों की सुरक्षा शताब्दियों से जिस गांधार का दायित्व रही, वह गांधार लगातार हुए मजहबी आक्रमण के फलस्वरूप आज कंधार बन गया। हमारी संस्कृति पर स्मृतिलोप का प्रभाव इतना भयंकर है कि हमें अपना भूला हुआ इतिहास भी याद नहीं आता।
अफगानिस्तान और भारत को बांटतीं डूरंड लाइन और रेडक्लिफ लाइन
अफगानिस्तान और हमारे बीच दोनों देशों को विभाजित करने वाली ब्रिटिश औपनिवेशिक दौर की दो सीमा रेखाएं हैं। पहली तो डूरंड लाइन है, जो अफगानिस्तान और आज के पाकिस्तान की सीमा है। दूसरी रेडक्लिफ लाइन है, जो बंटवारे के दौर में मारे गए हिंदुस्तानियों के खून से नहाई पंजाब और सिंध से होकर खींची गई थी। अफगानिस्तान ने तो पहाड़ों से गुजरती पख्तून समाज को दो टुकड़ों में बांटने वाली इस रेखा को आज तक स्वीकार नहीं किया, मगर हमारे शासकों ने इस रेडक्लिफ लाइन को एक ऐसी रेखा मान लिया गया, जिसे बदलने का कोई समय जैसे कभी आएगा ही नहीं। आज अर्थहीन हो चुकी डूरंड रेखा मात्र पख्तूनों को बांटने के काम आ रही है। यही अफगानिस्तान की मूल समस्या है। हमारे नेताओं ने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारा अफगानिस्तान से जमीनी संपर्क होना इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि अब वहीं से होकर पश्चिमोत्तर एशिया के लिए रास्ता जाता है। पाकिस्तान के कारण ईरान- इराक से संपर्क बाधित हो जाना हमारी एक बड़ी समस्या थी, लेकिन उस पर कभी गौर नहीं किया गया। भारत का बंटवारा अफगानिस्तान का दुर्भाग्य लेकर आया। वह अफगानिस्तान जो कभी एशिया का चौराहा हुआ करता था, आज एक अविकसित जिहादी इस्लामिक देश है।
मैदान छोड़ती अफगान सेनाएं
9/11 के बाद से बेहद महंगी अमेरिकी जंग के बाद अब अमेरिका की अफगानिस्तान से वापसी हो रही है। अफगान सेनाएं अमेरिकी सेनाओं की पूरी वापसी से पहले ही मैदान छोड़ती दिख रही हैं। तालिबान लड़ाकों की रणनीतिक क्षमता इससे प्रकट हो रही है कि उन्होंने सबसे पहले काबुल के उत्तरी ताजिक, उजबेक और हजारा इलाकों में ही कब्जे का अभियान चलाया। देश के अधिकांश प्रवेश मार्गों पर उनका कब्जा हो गया है। ये नार्दर्न एलायंस के वे क्षेत्र हैं, जो आने वाली जंग में तालिबान के लिए बड़ी समस्या बनते। पाकिस्तानी सेना तालिबान के समर्थन में है। ताशकंद शांतिवार्ता में राष्ट्रपति गनी ने साफ आरोप लगाया कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर आतंकी भेज रहा है। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर निकटवर्ती राजधानियों का दौरा कर रहे हैं, लेकिन रूस समेत इन सभी देशों के विकल्प सीमित हैं। आशंकाओं के मद्देनजर भारत ने भी अपने राजनयिक बुला लिए हैं। हम तालिबान से संपर्क साधने की कोशिश में तो हैं, लेकिन कुछ बेहतर होने की संभावनाएं बहुत कम हैं। तेजी से वर्चस्व कायम कर रहा तालिबान काबुल सरकार से किसी समझौते की रेंज से दूर जा रहा है। तालिबान के वर्चस्व का परिणाम अफगानिस्तान और इस क्षेत्र के देशों के लिए अच्छा संकेत नहीं होगा। अपने धार्मिक मिशन के तहत वे आसपास के देशों में जिहाद निर्यात करने वाली एक बड़ी एजेंसी बन जाएंगे। वे कश्मीर को भी लक्षित करने की कोशिश करेंगे।
अमेरिकी रणनीति की बड़ी असफलता
अमेरिकी रणनीति की सबसे बड़ी असफलता यह है कि वह इन 20 वर्षों में उत्तरी अफगानिस्तान के ताजिक-उजबेक-हजारा बहुल नार्दर्न एलायंस को अहमद शाह मसूद जैसा कोई सशक्त सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व नहीं दे सका, जबकि यह क्षेत्र एक अलग राजनीतिक पहचान की मांग करता है। आज अफगानिस्तान का संकट मूलत: उस औपनिवेशिक षड़यंत्र का परिणाम है, जिसमें अंग्रेजों ने अपना तात्कालिक हित देखते हुए डूरंड रेखा के जरिये पख्तून राष्ट्र को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया। जब पाकिस्तान बना तो डूरंड रेखा के दक्षिण का पख्तून इलाका अनायास उसके पास आ गया। वैश्विक महाशक्तियों के राजनयिक इसे कभी समझ नहीं पाएंगे कि अफगानिस्तान की समस्या दरअसल पख्तून राष्ट्रवाद के नकार की समस्या है, जिसे इस्लामिक आवरण में छिपाए रखने की कोशिश हो रही है। मंजूर पश्तीन के पख्तून आंदोलन को खैबर पख्तूनख्वा में मिल रहा व्यापक समर्थन इसी पहचान के संकट को ही तो संबोधित कर रहा है। यह संकट डूरंड रेखा के दोनों ओर है। अफगानिस्तान की किसी सरकार ने यहां तक कि तालिबान ने भी आज तक डूरंड रेखा को मान्यता नहीं दी है।
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भारत की सक्रिय भूमिका बन सकती है
भारत का विभाजन तो सांप्रदायिक आधार पर हुआ, पर अफगानिस्तान में तो एक ही मजहब के पख्तून राष्ट्र को मात्र औपनिवेशिक वर्चस्व के लिए दो टुकड़ों में बांट दिया गया। उपनिवेशों के समापन के 75 वर्ष बाद भी अफगानिस्तान को उसका परिणाम भुगतने को क्यों बाध्य किया जा रहा है? एक सक्षम राष्ट्र के रूप में अफगानिस्तान का अस्तित्व उसे आतंकवाद की दिशाविहीनता से मुक्त कर देगा। विश्व के द्वारा पख्तून राष्ट्रवाद का स्वीकार ही वह राजनीतिक लक्ष्य है, जिसमें भारत की सक्रिय भूमिका बन सकती है। अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता के लिए डूरंड के अभिशाप से पख्तून समाज की मुक्ति ही समाधान का एकमात्र मार्ग है।