पिछले साल आस्ट्रेलिया के बहुत बड़े इलाके में खड़े जंगल तबाह हो गए। भारत में भी पिछले साल आग की कई घटनाएं घटीं। कुछ बड़ी घटनाओं में अनेक लोग मारे गए। यों आग की घटनाएं अब दुनिया में साल के बारहों महीने होती रहती हैं, पर गर्मी में कुछ ज्यादा घटती हैं, जिनसे करोड़ों की संपत्ति नष्ट होती है, मवेशी और सैकड़ों लोग इसकी भेंट चढ़ जाते हैं।
यों तो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, असम, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों में भी आग से जंगल तबाह होते रहे हैं, लेकिन जिस बड़े पैमाने पर इन दोनों पहाड़ी राज्यों में तबाही देखने को मिलती है, वैसे अन्य किसी राज्य में नहीं। पिछले तीस वर्षों में आग की हजारों छोटी-बड़ी घटनाएं घट चुकी हैं, जिनसे लाखों हेक्टेयर जमीन में खड़े जंगल प्रभावित हुए। जैविक विविधता नष्ट हुई है और जीव-जंतु मारे गए हैं।
नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट के अनुसार भारत के पचास फीसद जंगलों को आग से खतरा है, जिसमें अधिकतर जंगल हिमाचल, जम्मू, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और असम के हैं। जब पांच वर्ष पहले कार्बेट जल कर खाक हो गया था, तब आग की चपेट में आकर लाखों जीव-जंतु मारे गए और बेशकीमती औषधियां आग की भेंट चढ़ गई थीं।
पिछले दस सालों में उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू में इस तरह की कई भीषण घटनाएं घटीं, लेकिन उनसे राज्य सरकारों ने कोई सबक नहीं सीखा। शहरों में तो दमकल के जरिए आग पर काबू पा लिया जाता है, लेकिन पहाड़ी इलाकों में काबू पाना मुश्किल होता है।
आमतौर पर गर्मी के महीनोें में हर वर्ष जंगली क्षत्रों में आग लगती ही है। कई बार सूखे पत्तों और घनी झाड़ियों को जलाने के लिए आग लगाई जाती है। माना जाता है कि स्थानीय निवासियों द्वारा छोटे इलाकों में सूखे पत्तों और छोटी सूखी वनस्पतियों को जलाने से बड़ी विनाशकारी आग की घटनाएं नहीं होती हैं।
पर्यावरण की क्षति, वन क्षेत्र की वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के विनाश का भी खतरा नहीं रहता। राज्य और केंद्र सरकार को इस तरह के लोगों को बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित करके छोटे इलाकों के पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले खर-पतवारों को जलाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। धीरे-धीरे यह पंरपरा बन जाएगी और जगलों की विविधता और हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियर पिघलने की बढ़ती समस्या को भी काफी हद तक रोका जा सकता है।
पहाड़ी इलाकों के रहवासियों का पालन-पोषण जंगल ही करते रहे हैं। फल-फूल, मेवे, औषधियां, जलाऊ और इमारती लकड़ियां भी जंगलों से आराम से मिल जाती थीं। जंगल लोगों को पालते थे और लोग जंगलों की सुरक्षा करते थे। 1970 के दशक में जंगल बचाने और पर्यावरण की रक्षा के लिए आंदोलन चलाए गए, जिसमें शिक्षित और अशिक्षित महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
जंगलों की रक्षा के लिए यह आंदोलन दुनिया भर की महिलाओं के लिए नजीर बन गया। 1988 में केंद्र सरकार ने जो वन नीति बनाई थी उससे जंगलों को संरक्षित करने और उनका विस्तार करने में सहूलियत तो मिली, लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद जिस तरह वनों में माफिया, तस्करों और वन विभाग के अधिकारियों की मिली-भगत से लूट मची, उससे उत्तराखंड बनने का उद्देश्य खंड-खंड हो गया।
उत्तराखंड में देश-विदेश की अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां की अमूल्य संपदा का दोहन कर पूरे इलाके को खोखला करने में लगी हुई हैं। रोजगार देने और खुशहाली का नया दौर शुरू करने का सब्जबाग दिखाने वाली ये कंपनियां राज्य सरकार से खाद-पानी पाती रही हैं। राज्य सरकार अवैध निर्माण, जगली जंतुओं के शिकार, अवैध खनन और वन की अमूल्य औषधियों और लकड़ियों की तस्कारी रोकने में विफल रही है।
पहाड़ के निवासियों द्वारा उत्तराखंड निर्माण के समय देखे गए स्वप्न जंगलों के साथ लगातार जलते आए हैं। हर बार चुनाव के समय हर पार्टी उत्तराखंड को सबसे खुशहाल राज्य बनाने का वादा करके सत्ता में आती है और सत्ता मिलते ही वह अपना नफा-नुकसान केवल पर्यटन को बढ़ावा देने और नई-नई देशी-विदेशी कंपनियों के जरिए लाभ कमाने पर सारा ध्यान केंद्रित करती है।
शुभ सोचने और करने पर कभी गौर ही नहीं किया जाता। इस प्रदेश की मूल समस्याओं के लिए कोई ठोस, दूरगामी योजनाएं नहीं बनाई जातीं। इसका परिणाम यह हुआ है कि इस प्रदेश की समस्याएं पिछले बीस वर्षों में अधिक तेजी के साथ बढ़ी हैं।
उत्तर प्रदेश को खंडित करके जब उत्तराखंड का निर्माण हुआ था, उस वक्त इस इलाके के लोगों को लगा था कि उनकी एक मुराद पूरी हो गई, अब कहीं अधिक तेजी के साथ इस प्रदेश को अपने स्वप्नों का प्रदेश बनाएंगे। राजनेताओं ने भी जनता से बड़े-बड़े वादे किए थे। उसमें एक वादा यह भी था कि इस प्रदेश की मूलभूत समस्या- सड़क, बिजली और पानी को हल करने को प्राथमिकता दी जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार मिलेगा।
पलायन के लिए किसी को मजबूर नहीं होना पड़ेगा। लेकिन इसमें से एक भी समस्या हल नहीं हो पाई, बल्कि दूसरी समस्याएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। बाढ़, बारिश और वन की आग की समस्याओं का लगातार बढ़ते जाना, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इन समस्याओं का जिम्मेदार पंचानबे प्रतिशत तक मानव ही है, जो अपने स्वार्थ में इस क्षेत्र की विविधता का दोहन करता आ रहा है।
जंगल जला, तो इस इलाके का आधार ही जल कर खाक हो गया। देवभूमि कहा जाने वाला यह पहाड़ी प्रदेश अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है और इसके आंसू पोंछने वाला न तो शासन, प्रशासन आगे आ रहा है और न तो स्थानीय लोगों को साथ लेकर कोई नया आंदोलन खड़़ा हो पा रहा है।
इसका परिणाम यह हो रहा है कि आग की विकराल होती लपटें पहाड़ों को पिघला रही हैं और निकलते धुंए हिमालयी क्षेत्र के ग्लेशियरों पर जमते जा रहे हैं। इससे कार्बन के कण गर्मी अधिक सोख रहे हैं, जिससे आने वाले समय में तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ गई है।
इससे जहां टिहरी बांध पर दबाव बढ़ेगा, वहीं निचले इलाकों में बाढ़ के विनाशकारी रूप लेने की अशंका बढ़ गई है। दूसरी ओर यह भी बताया जा रहा है कि आने वाले वर्षों में जंगल की आग के कारण उत्तर भारत का तापमान 0.2 डिग्री बढ़ सकता है और इससे मानसून प्रभावित हो सकता है।
जंगल की आग को रोकने के लिए यों तो अनेक नई-नई तकनीकें इस्तेमाल की जाने लगी हैं, जिसमें कृत्रिम वर्षा कराना, विमान और ड्रोन से रासानिक झाग का छिड़काव और मिट्टी का छिड़काव प्रमुख हैं। लेकिन ये सभी तरीके बहुत महंगे और भारत जैसे गरीब देश के लिए अभी संभव नहीं दिखते।
दरअसल, जगलों में आग लगने की समस्या केवल उत्तराखंड की नहीं है। हिमाचल, जम्मू, छत्तीसगढ़, असम, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी हर वर्ष जंगल जलते हैं और मनुष्य अपने स्वार्थ में तमाशबीन बना दिखता है। समस्या एक स्तर पर हो, तो उसका समाधान भी किया जा सकता है। लेकिन यहां तो समाधान करने वाले ही समस्या पैदा कर रहे हैं।
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