हिमालय पर्वत शृंखला के उन क्षेत्रों में ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित हैं, जहां मानव-दखल ज्यादा है
इस रविवार सुबह कोई साढ़े दस बजे उत्तराखंड के चमोली जिले में नंदा देवी पर्वतमाला का ग्लेशियर यानी हिमनद टूट कर तेजी से नीचे फिसला और ऋषिगंगा नदी में गिरा। इससे नदी के जल स्तर में अचानक उछाल आना ही था। देखते ही देखते रैणी गांव के पास चल रहे छोटे से बिजली संयत्र में तबाही थी और उसका असर पांच किमी के दायरे में बहने वाली धौली गंगा पर भी पड़ा। वहां भी निर्माणाधीन एनटीपीसी का पूरा प्रोजेक्ट तबाह हो गया। कई पुल ध्वस्त हो गए और कई गांवों से संपर्क टूट गया। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद देवभूमि में एक बार फिर विकास बनाम विनाश की बहस खड़ी हो गई है। जिस रैणी गांव के करीब ग्लेशियर गिरने की पहली धमक हुई, वहां के निवासी 2019 में हाई कोर्ट गए थे कि पर्यावरणीय दृष्टि से इतने संवेदनशील इलाके में बिजली परियोजना की आड़ में जो अवैध खनन हो रहा है, वह तबाही ला सकता है। मामला तारीखों में उलझा रहा और हादसा हो गया। इस तबाही ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हमें अभी अपने जल-प्राण कहलाने वाले ग्लेशियरों के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की सख्त जरूरत है।
यदि नीति आयोग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर बनी रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसद जल धाराओं में पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग के दुष्परिणामस्वरूप ग्लेशियरों पर आ रहे संकट को लेकर ऐसे दावे सामने आने लगे हैं कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जलमग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली ओजोन परत के नष्ट होने से सूखे, बाढ़ की समस्या बढ़ेगी।
हिमालय पर्वत के उत्तराखंड वाले हिस्से में छोटे-बड़े करीब 1400 ग्लेशियर हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसद इनसे आच्छादित है। इन ग्लेशियरों से निकलने वाला जल देश के एक बड़े हिस्से की खेती, पीने के पानी, उद्योग, बिजली, पर्यटन आदि के लिए एकमात्र स्नोत है। जाहिर है, ग्लेशियरों के साथ कोई भी छेड़छाड़ देश के पर्यावरणीय, सामाजिक, र्आिथक और सामरिक संकट का कारक बन सकता है। इसीलिए 2010 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने राज्य में स्नो एंड ग्लेशियर प्राधिकरण के गठन की पहल की थी। उन्होंने इसरो के निर्देशन में स्नो एंड एवलांच स्टडीज स्टैब्लिशमेंट, चंडीगढ़ और देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालय स्टडीज के सहयोग से ऐसे प्राधिकरण के गठन की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी थी। दुर्भाग्य से उनके मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद इस महत्वाकांक्षी परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल पिंड जो कम से कम तीन फुट मोटे और दो किमी तक लंबे हों, हिमनद या ग्लेशियर कहलाते हैं। जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है, वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते हैं। हिमालय क्षेत्र में साल में करीब तीन सौ दिन कम से कम आठ घंटे तेज धूप रहती है। जाहिर है थोड़ी-बहुत गर्मी में हिमनद पिघलने से रहे।
कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतरराष्ट्रीय पैनल-आइपीसीसी ने दावा किया था कि बढ़ते तापमान के चलते संभव है कि 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों का नामोनिशान मिट जाए। इसके विपरीत फ्रांस की एक संस्था ने उपग्रह चित्रों के माध्यम से दावा किया था कि हिमालय के ग्लेशियरों पर ग्लोबल वार्मिंग का कोई खास असर नहीं पड़ा है। तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश इससे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को ग्लेशियरों की पड़ताल का काम सौंपा। इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों को लेकर 150 साल के आंकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला। इस दल ने इस आशंका को भी निर्मूल माना कि जल्द ही ग्लेशियर लुप्त हो जाएंगे और भारत में कयामत आ जाएगी। आइपीसीसी ने इन निष्कर्षों पर कोई सफाई नहीं दी।
असल में अभी तक ग्लेशियर के विस्तार, गलन, गति आदि पर समग्र विचार नहीं किया गया है और हम उत्तरी ध्रुव को लेकर पश्चिमी देशों के सिद्धांत को ही हिमालय पर लागू कर अध्ययन कर रहे हैं। इसके बाद भी हम विचार करें तो पाएंगे कि हिमालय पर्वत शृंखला के उन इलाकों में ही ग्लेशियर ज्यादा प्रभावित हुए हैं, जहां मानव-दखल ज्यादा हुआ है। सनद रहे कि अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर तीन हजार से अधिक पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं। अन्य पर्वतमालाओं पर पहुंचने वालों की संख्या भी हजारों में है। ये पर्वतारोही अपने पीछे कचरे का भंडार छोड़कर आते हैं। इस बेजा चहलकदमी से ही ग्लेशियर सिमट रहे हैं। कहा जा सकता है कि यह ग्लोबल नहीं लोकल र्वािमग का नतीजा है। यह बात भी स्वीकार करनी होगी कि ग्लेशियरों के करीब बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के लिए हो रही तोड़-फोड़ से हिमपर्वत प्रभावित हो रहे हैं।
ग्लेशियर उतने ही जरूरी हैं, जितनी साफ हवा या पानी, लेकिन अभी तक हम ग्लेशियर के रहस्यों को जान नहीं पाए हैं। कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी कहना है कि गंगा-यमुना जैसी नदियों के जनक ग्लेशियरों की गहराई में स्फटिक जैसी संरचनाएं भी स्वच्छ पानी का स्नोत हैं। कुछ देश इस संरचना के रहस्यों को जानने में रुचि केवल इसलिए रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके। इसी फिराक में ग्लेशियर पिघलने का शोर होता है। आशंकाओं के निर्मूलन का एक ही तरीका है कि ग्लेशियर अध्ययन के लिए अधिकार संपन्न प्राधिकरण का गठन किया जाए, जिसका संचालन केंद्र के हाथों में हो।