उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की ओर से राज्य के 51 मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से बाहर करने की घोषणा उस मुहिम का नतीजा है, जिसके तहत कुछ समय से सचेत हिंदू पूरे देश में मंदिरों की मुक्ति का अभियान चला रहे हैं। धीरे-धीरे इसमें इतनी गति आ गई है कि राजनीतिक दल भी इसे अपने वादों में स्थान देने लगे हैं। तमिलनाडु विधानसभा चुनाव के दौरान सदगुरु जग्गी वासुदेव ने लोगों से निवेदन किया कि वे वोट मांगने वालों से मंदिरों को राजकीय चंगुल से मुक्त कराने का वचन लें। इसी तरह अपवर्ड, जयपुर डायलॉग्स जैसे कुछ शैक्षिक-वैचारिक मंच भी इसके लिए जन-जागरण चला रहे हैं। इस बीच भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कई मंदिरों के लिए केंद्रीय बोर्ड बनाने की भी बात छेड़ी है यानी मंदिरों को अप्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण में लेने का प्रस्ताव। इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं। इसके पीछे कुछ विशेष संगठनों को मंदिरों के संचालन में स्थायी अधिकार देने की योजना देखी जा रही है। यह आशंका निराधार नहीं।
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हमारे देश में स्वतंत्रता के समय से ही सोवियत मॉडल पर राज्यतंत्र के अधिकाधिक विस्तार की बुरी परंपरा बनी। उससे होने वाली हानियां, व्यापक भ्रष्टाचार और अंतत: सोवियत संघ का विघटन देखकर भी हमारे राजनीतिक दलों में उसका आकर्षण नहीं घटा। कारण यही है कि राज्यतंत्र का विस्तार उनकी निजी ताकत और सुविधाएं बढ़ाता है। यह आशंका गलत नहीं कि मंदिरों को कब्जे में लेकर नेतावर्ग अपनी ताकत एवं आमदनी और बढ़ाना चाहें। इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि जिस हिंदू समाज के बल पर भारतीय राज्यतंत्र दशकों से चल रहा है, उसी के हितों की लगातार बलि चढ़ाई जाती रही है। स्वतंत्र भारत में ही हिंदुओं को मुस्लिम और ईसाई समुदायों की तुलना में हीन दर्जे में कर दिया गया, जो ब्रिटिश राज में भी नहीं था।
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स्वयं भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि हिंदुओं को मुस्लिमों, ईसाइयों की तुलना में कम शैक्षिक, धार्मिक, कानूनी अधिकार हैं। इस ओर संकेत करते हुए डॉ. आंबेडकर ने भारतीय संविधान को गैर-सेक्युलर कहा था, क्योंकि ‘यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है।’ इसी मूल गड़बड़ी का नतीजा हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा भी है। यह हिंदूवादी कहलाने वालों के शासन में भी जारी है।
सुप्रीम कोर्ट हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को अनुचित कह चुका
जबकि सुप्रीम कोर्ट भी हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को कई बार अनुचित कह चुका है। कोर्ट ने साफ कहा है कि ‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’ उसने चिदंबरम (तमिलनाडु) के नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश 2014 में दिया था। इसके अलावा पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में जस्टिस बोबडे ने कहा था, ‘मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए?’ उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान वहां अनमोल देव-मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं होती रही हैं। ऐसी स्थितियों का कारण भक्तों के पास अपने मंदिरों के संचालन का अधिकार न होना है। यह अधिकार राज्य ने छीन लिया और उसके अमले वैसे ही काम करते हैं, जैसे आम सरकारी विभाग। वे धार्मिक गतिविधियों, रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं।
हिंदू मंदिरों पर राज्य सरकारों का कब्जा
सरकारी अफसरों को तो मात्र नागरिक शासन चलाने की ट्रेनिंग मिली है। इसलिए कोई अफसर अपने पूर्वग्रह, अज्ञान या मतवादी कारणों से हिंदू धर्म के प्रति उदासीनता या दुराग्रह भी दिखा सकता है। इस अनुभव के बावजूद सरकारें हिंदू मंदिरों पर दिनों-दिन कब्जा बढ़ा रही हैं। इनमें भाजपा सरकारें भी हैं। क्या इससे बड़ा धार्मिक अन्याय हो सकता है कि करीब चार लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्जा है, किंतु एक भी चर्च या मस्जिद पर राज्य का नियंत्रण नहीं है? हिंदू समाज के अलावा शेष सभी समुदाय अपने-अपने धर्मस्थान स्वयं चलाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं। यह भेदभाव हिंदू समुदाय को दिनोंदिन और दुर्बल, असहाय बनाने का उपाय है।
भारत में हिंदू धर्म पर प्रहार
सर्वविदित है कि कुछ बाहरी पंथ भारत में हिंदू धर्म पर प्रहार करते रहे हैं। सदियों से छल-बल से हिंदुओं का मतांतरण कराते रहे हैं। अपने इलाकों में उन्हें मारते-भगाते रहे हैं। उन्हीं समुदायों को मंदिरों की आय से ही विशेष सहायता दी जाती है। आंध्र और कर्नाटक में हिंदू मंदिरों की आय से हज सब्सिडी देने की बात कई बार जाहिर हो चुकी है। यह तो सीधे-सीधे हिंदू धर्म पर चोट है।
राजकीय कब्जे वाले हिंदू मंदिरों के पुजारी सरकारी अफसरों के अनुचर बना दिए गए
राजकीय कब्जे वाले हिंदू मंदिरों के पुजारी सरकारी अफसरों के अनुचर बना दिए गए हैं। उन्हें अपने ही मंदिरों की देख-रेख से वंचित या बाधित कर दिया गया है। वे मंदिरों के पारंपरिक शैक्षिक, कला, संस्कृति या सेवा संबंधी कार्य नहीं कर सकते, जो सदियों से होते आ रहे थे, जैसे, पाठशालाएं, वेदशालाएं, गौशालाएं, चिकित्सालय, शास्त्रीय नृत्य आयोजन आदि। इस प्रकार भारत में हिंदू मंदिर के पुजारियों की तुलना में किसी मस्जिद के इमाम या चर्च के बिशप की सामाजिक स्थिति मजबूत होती गई। वे अपने समुदाय को समर्थ, सबल बनाने के लिए मस्जिद और चर्च का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हैं। यह भी तुलनात्मक रूप से हिंदुओं के लिए एक गंभीर हानि है। यह हानि और अधिक खतरनाक होने वाली है। इसे समय रहते समझना चाहिए।
मंदिरों में चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना भी संविधान के खिलाफ है
मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना भी संविधान के अनुच्छेद 25-26 का उल्लंघन है। सरकारी कब्जे के कारण ही मंदिरों से सर्विस-टैक्स वसूला जाता है। यह मस्जिदों या चर्चों से नहीं वसूला जाता। कई मंदिरों में ऑडिट फीस, प्रशासन चलाने की फीस और दूसरे तरह के टैक्स वसूले जाते हैं। किसी-किसी मंदिर की आय का लगभग 65-70 फीसद तक सरकार हथिया लेती है। 1986-2005 के बीच तमिलनाडु में मंदिरों की हजारों एकड़ जमीन उनसे छिन गई। हजारों एकड़ पर अवैध अतिक्रमण हो चुका है। यह सब सरकारी कब्जे की व्यवस्था का नमूना है।
किसी हिंदू राजा ने मंदिरों पर अधिकार या नियंत्रण नहीं जताया, न उनसे कर वसूला
याद रहे कि भारतीय परंपरा में किसी हिंदू राजा ने मंदिरों पर अधिकार या नियंत्रण नहीं जताया, न उनसे कर वसूला। धार्मिक कार्यों में राजा द्वारा हस्तक्षेप के उदाहरण नहीं मिलते। वे तो सहायता ही देते थे। मुगल काल में मंदिरों को तरह-तरह के राजकीय अत्याचार झेलने पड़ते थे। दुर्भाग्यवश स्वतंत्र भारत में भी हिंदू समुदाय को अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार नहीं, जो अन्य को है।