पिछले दो महीने से भीषण सूखे का सामना कर रहा लगभग पूरा उत्तर बिहार अचानक दो दिन से भीषण बाढ़ की चपेट में है। यहां गंडक, बागमती, कमला, कोसी और महानंदा समेत कई नदियां उफनाई हुई हैं और खतरे के निशान के ऊपर बह रही हैं। बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग के आंक़ड़ों के मुताबिक कमला नदी पर बने तटबंध आठ जगह से ध्वस्त हो चुके हैं, कोसी में इतना पानी आया कि भीमनगर बराज के सभी 56 गेट खोलने पड़े, बागमती सीतामढ़ी और शिवहर में तबाही मचा रही है। कुल मिलाकर उत्तर बिहार के 12 जिलों की 19 लाख से अधिक आबादी अचानक आयी इस बाढ़ से प्रभावित हुई है। सरकार इस बाढ़ का कारण नेपाल में अचानक हुई भारी बारिश को बता रही है।
महानंदा को छोड़ दिया जाये तो उत्तर बिहार में बहने वाली सभी बड़ी नदियां नेपाल से ही बिहार के इलाके में प्रवेश करती हैं। हिमालय की शिवालिक श्रृंखला में इन नदियों का उद्गम है और वहां होने वाली तेज बारिश की वजह से इन नदियों में बाढ़ की स्थिति बनती है और पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन की वजह से वहां बारिश अनियमित भी हो गयी है और कम समय में अधिक मात्रा में होने लगी है।
11 से 13 जुलाई, 2019 के बीच पूर्वी नेपाल में 500 मिमि से अधिक बारिश हुई, सिमरा में तो शुक्रवार को एक ही दिन में 300 मिमि बारिश हुई और उसी दिन काठमांडू में 150 मिमि बारिश हुई। नेपाल से बिहार आने वाली नदियों गंडक, बागमती, कमला और कोसी का यह जल अधिग्रहण क्षेत्र है। महज तीन दिन में इतनी भारी बारिश की वजह से ये नदियां भर गयीं और नेपाल के बीरगंज, सोनबरसा, मलंगवा, जलेश्वरपुर, जनकपुर, सिरहा, गौर आदि इलाकों में बाढ़ की तबाही मचाते हुए उत्तर बिहार के इलाके में प्रवेश कर गयी।
इस तेज बारिश ने जरनल क्लाइमेट में जनवरी, 2017 में प्रकाशित उस रिपोर्ट की पुष्टि की है, जिसमें बता गया था कि नेपाल में पहाड़ी इलाकों के मुकाबले तराई के इलाके में उच्च मात्रा वाली बारिश की संभावना रहती है। यह रिपोर्ट 1981 से 2010 के बीच नेपाल में हुई बारिश का विश्लेषण कर बनायी गयी थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि नेपाल में भले ही तेज बारिश वाले दिन देखने को मिल रहे हैं, मगर बारिश के दिनों में कमी आ रही है। मतलब भले किसी एक रोज भारी बारिश हो जाये, मगर साल में बारिश वाले दिनों की संख्या घट रही है। खास तौर पर धीमी फुहार वाली बारिश अब कम देखने को मिल रही है, जिससे किसानों को फायदा हुआ करता है।
इस बाढ़ की वजह से इस बार नेपाल में काफी तबाही हुई है। अब तक 88 लोग मारे जा चुके हैं, हजारों लोग विस्थापित हो चुके हैं। जबकि इस मुकाबले उत्तर बिहार में इस बार मौतें कम हुई हैं, 21 लोग मृत हुए हैं, मगर निचले सतह पर होने की वजह से यहां बाढ़ का फैलाव अधिक है। नेपाल में हाल के वर्षों में इस तरह की बारिश आम हो गयी है। 2017 के मानसून में आयी ऐसी ही बाढ़ में 143 लोगों की मौत हुई थी और 80 हजार लोग बेघर हुए थे। उस साल उत्तर बिहार में भी इस बाढ़ ने भीषण प्रभाव छोड़ा था, 19 जिले के एक करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए थे, इनमें 514 लोगों की मौत हो गयी थी। 2014 में भी नेपाल में सौ से अधिक लोगों की बाढ़ के दौरान मौत हो गयी थी और दस हजार से अधिक लोग बेघर हो गये थे, उस साल बिहार के 20 जिले बाढ़ की चपेट में आये और 158 लोगों की मौत हुई।
लगभग हर साल की तरह इस साल भी बिहार में बाढ़ ने दस्तक दे दी है. पिछले क़रीब दो हफ़्तों से लगातार हो रही बारिश के कारण नदियां उफ़ान पर हैं. नेपाल से सटे सीमावर्ती ज़िलों में हाहाकार मचा हुआ है.
बिहार में पिछले साल भी बाढ़ आई थी. हालांकि, असर उतना ज़्यादा नहीं था. पर उससे एक साल पहले यानी साल 2017 में बाढ़ ने पूरे उत्तर बिहार में भीषण तबाही मचायी थी.
अत्यधिक और भारी वर्षा ;भ्मंअल त्ंपदंिससद्ध – काफी देर तक भारी वर्षा होने से एक स्थान पर बहुत अधिक मात्रा में जल एकत्रित हो जाता है एवं पृष्ठ वाह ;ेनतंिबम तनदवििद्ध भी अधिक हो जाता है। फलतः जल की मात्रा नदियों के जल सतह को ऊँचा कर देती है और आसपास के क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। भारत विश्व के अधिकतम वर्षा प्राप्त करने वाले देशों में से एक है जहाँ औसत वार्षिक वर्षा 115 से.मी. है। लगभग 80 प्रतिशत वर्षा जून से सितम्बर महीनों में दक्षिण पश्चिम मानसून द्वारा भारत के सभी राज्यों को (तमिलनाडु को छोड़कर) प्राप्त होती है। इस प्रकार मौसमी वर्षा की अधिकता के कारण वे सभी नदियाँ जो अन्यथा सूखी रहती हैं अत्यधिक जल से भर जाती हैं और आप्लावित हो जाती हैं। अतएव भारी वर्षा के कारण भारत के हिमालय क्षेत्र एवं मैदानी क्षेत्र काफी मात्रा में बाढ़ से प्रभावित हो जाते हैं।
नेपाल में पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले लोग मानते हैं कि शिवालिक(स्थानीय भाषा में चूरे) शृंखला में पिछले कुछ दशकों में पत्थर का उत्खन और वनों की अंधाधुन कटाई की वजह से यह स्थिति उत्पन्न हुई है और इसका खामियाजा नेपाल के साथ-साथ उत्तर बिहार को भी भुगतना पड़ता है। नेपाल के हिमालय क्षेत्र में 90 के दशक से ही वनों की अंधाधुंध कटाई होने लगी। 1990 से 2005 के बीच नेपाल ने अपना एक चौथाई वन क्षेत्र खो दिया, 2002 के बाद वहां वनों की कटाई की गति थोड़ी कम हुई, मगर 2002 से 2018 तक 42,513 हेक्टेयर वन भूमि नेपाल गंवा चुका है।
नेपाल के तराई इलाके में पर्यावरण के मसले पर काम करने वाले चंद्र किशोर कहते हैं कि चूरे (शिवालिक) के इलाके में हाल के वर्षों में पत्थरों का उत्खनन भी खूब हो रहा है, ताकि नेपाल और पड़ोसी भारत में तेजी से बढ़ रहे निर्माण कार्य के लिए सामग्री उपलब्ध कराई जा सके। इस वजह से चूरे की स्थिति खराब हुई है। अब बारिश का पानी वहां अटकता नहीं तेजी से बहकर पहले नेपाल की तराई को तबाह करता है, फिर भारत को। रेत माफियाओं ने नदी के बेसिन को खोद-खोद कर गड्ढे में बदल दिया है। वह भी नदी के बहाव को अनियंत्रित करता है। हाल के दिनों में एक नया बदलाव यह देखा जा रहा है कि छोटी-छोटी नदियां जिन्हें हम भूल चुके थे और जिनके बेड में लोग घर बनाने लगे थे, वे मानसून में अचानक फिर से जिंदा हो जा रही है।
बिहार में नदियों के सवाल पर काम करने वाले रंजीव कहते हैं, दिक्कत यह भी है कि नेपाल से उत्तर बिहार के इलाकों में हर साल आने वाले इस आपदा को लेकर कोई वार्निंग सिस्टम विकसित नहीं हो पाया है। यह सच है कि नेपाल की सरकार और बिहार के बीच मौसम संबंधी सूचनाएं साझा नहीं होतीं। बिहार को हिमालय के क्षेत्र में होने वाली बारिश की जानकारी चाहिए होती है और नेपाल को इस इलाके में आने वाले तूफान और शीतलहर की। मगर बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग अब तक ऐसा नहीं कर पाया है।
हालांकि हाल में बिहार सरकार का जल संसाधन विभाग एक्कु वेदर डॉट कॉम से मिली पूर्व सूचना के आधार पर नेपाल के क्षेत्र की बारिश के पूर्वानुमान को जारी करने लगा है, नेपाल का मौसम विभाग भी नियमित रूप से ट्विटर पर सूचनाएं जारी करता है। मगर स्थानीय प्रशासन संभवतः इन सूचनाओं को बहुत महत्व नहीं देता, इसलिए इस इलाके में बाढ़ से पूर्व की वार्निंग कभी ठीक से जारी नहीं होती।
वृहद् जलग्रहण क्षेत्र ;स्ंतहम ब्ंजबीउमदज ंतमंद्ध – जल ग्रहण क्षेत्र के बड़े होने की स्थिति में वर्षा की मात्रा अधिक न होने पर भी जल अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाता है। अतः नदियों में बाढ़ आने की सम्भावना बढ़ जाती है। भारत में गंगा और गोदावरी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र काफी बड़े हैं जिस कारण इन नदियों में अत्यधिक जल का संचरण होता है एवं बाढ़ आने की सम्भावना भी अधिक होती है।,/p>
अपर्याप्त अपवाह प्रबन्धन व्यवस्था ;प्दंकमुनंजम कतंपदंहम ंततंदहमउमदजद्ध- कभी कभी जलग्रहण क्षेत्र के छोटे एवं कम वर्षा होने के बावजूद उस क्षेत्र में बाढ़ आ सकती है, यदि उस क्षेत्र में जल निकासी की समुचित व्यवस्था न हो एवं जल एक स्थान पर एकत्रित हो जाए। यह विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से हो सकता है जैसे-
नदियों के वाहिकाओं का अनुचित विकास ;पसस.कमअमसवचमक कतंपदंहम बींददमसेद्ध रू मुख्य रूप से पंजाब और राजस्थान में अपवाह तंत्र की वाहिकाएँ समुचित ढंग से विकसित नहीं हुई हैं। ऐसे शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अचानक भारी वर्षां से प्राप्त जल को नदियाँ समंजन ;ंबबवउउवकंजमद्ध नहीं कर पातीं। साथ ही इन क्षेत्रों में मिट्टी अधिकांशतः असंपीड़ित होती हैं एवं पृष्ठ वाह के कारण अधिक मात्रा में मिट्टी का बहाव होता है। यह मिट्टी कई स्थानों में अपवाह तंत्र को अवरूद्ध कर देती है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न कर देती है।
नदियों में विसर्प के निर्माण के कारण ;डमंदकमतपदह व िजीम तपअमतेद्ध – नदियों में विसर्प के निर्माण के कारण जल के सामान्य विसर्जन ;दवतउंस कपेबींतहमद्ध में बाधा उत्पन्न हो जाती है और जल के प्रवाह वेग में कमी आ जाती है, जिससे जल के निस्तारण में विलम्ब होती है। इससे विसर्प क्षेत्र जलमग्न ;सिववकमकद्ध हो जाते हैं। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र की निचली घाटियों में इस प्रकार की स्थिति पाई जाती है।
नदियों के वहन क्षमता में कमी ;त्मकनबमक बंततलपदह बंचंबपजल व ितपअमतेद्ध- नदियों में जल के साथ-साथ मलबे का भी वहन होता है। जलग्रहण क्षेत्र में अधिक अपरदन के कारण जब नदी के तल में अधिक मलबा एकत्रित हो जाता है, तब नदियों की वहन क्षमता में कमी आ जाती है। इसके फलस्वरूप नदियों के आस पास के क्षेत्र जलमग्न हो जाते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तरी बिहार में विशेषतः नारायणी और कोसी नदियों की तली में हिमालयी क्षेत्रों से एकत्रित मलबे के कारण वहन क्षमता में आयी कमी के कारण अक्सर बाढ़ आती है।
उच्च भौमजलस्तर – जिन स्थानों पर भौमजलस्तर उच्च होता है, जैसे उत्तरी बिहार वहाँँ पर बहते जल की अवशोषण क्षमता कम होती है और सतही प्रवाह तीव्र हो जाता है जो बाढ़ का कारण बनता है।
नदियों में गाद की दर बढ़ने से बाढ़ – हिमालय क्षेत्र में बहने वाली नदियों मंे वर्ष के 8-9 महीनों तक मिट्टी एवं गाद पानी के साथ घुलकर बहती रहती है। एक अनुमान के अनुसार हिमालय की नदियों के जलग्राही क्षेत्रों में प्रतिवर्ष लगभग 6 अरब टन मिट्टी बहकर मैदानों एवं समुद्र तटीय क्षेत्रों में जमा हो रही है। एक मोटे अनुमान के अनुसार हिमालय से निकलने वाली गण्डक और सरयू प्रणाली में नदियों से प्रतिवर्ष लगभग 10 लाख घन फुट मिट्टी जल के साथ बहकर उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में जमा हो रही है। इससे नदियों के पाट भरते जा रहे हैं। नदियों में बढ़ते हुए गाद एवं मलबे से नदियों की सतह भी ऊपर उठ रही है। नदियों में कम पानी होने पर भी उसकी धारण क्षमता के अभाव में यही पानी बाढ़ का रूप धारण कर लेता है। नदियों में गाद की दर में वृद्धि का मुख्य कारण पर्वतीय क्षेत्रोें में वनस्पतियों का विनाश है। वृक्ष विहीन स्थान पर तीव्र गति से वर्षा की बौछारों के द्वारा वहाँ की मिट्टी उखड़कर दूर-दूर तक फैल जाती है तथा पानी में घुलकर बहाव के साथ बह जाती है। मूसलाधार वर्षा का जल जब मिट्टी सहित नदी-नालों में बहता है तो पानी के साथ गाद अधिक होने से वह बाढ़ का स्वरूप धारण कर लेता है।
वन-अपरोपण ;क्मवितमेजंजपवदद्ध- वनस्पति के विस्तार से पृष्ठवाह दो प्रकार से प्रभावित होते हैं- पहला, इससे वर्षा का जल धीरेµधीरे मिट्टी तक पहुँचता हैं, अन्तःस्यंदन ;पदपिसजतंजपवदद्ध होता है मिट्टी में पृष्ठ वाह की गति को धीमी कर देता है। दूसरा, वनस्पति के अभाव में भूमि की सतह अनावृत हो जाती हैं और अन्तःस्यंदन कम हो जाता है। जल के प्रवाह की गति अधिक हो जाती है और नदियों के अनुप्रवाह क्षेत्र ;कवूदेजतमंउ ंतमंद्ध बाढ़ से आक्रांत हो जाते हैं। इस प्रकार के निर्विघ्न वनोन्मूलन ;पदकपेबतपउपदंजम कमवितमेजंजपवदद्ध वाले बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के उदाहरण शिवालिक, निचली हिमालय, छोटानागपुर पठार, पश्चिम घाट, पश्चिम बंगाल में तिष्ता और टोरसा की घाटी, मध्य प्रदेश में चंबल की घाटी, उत्तर प्रदेश में गंडक की घाटी एवं बिहार में कोसी घाटी में मिलते हैं। हमारे देश में कुल वनस्पति आवृत क्षेत्र का 86 प्रतिशत भाग हिमालय क्षेत्र में 77 प्रतिशत नष्ट हो चुका है। अतः इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बाढ़ की स्थिति पहले से अधिक बढ़ चुकी है, यद्यपि वर्षा प्रारूप में पिछली शताब्दी में कोई विशेष बदलाव नहीं आया।
मलबा का जमाव ;ैपसजंजपवदद्ध – वनोन्मूलन से पृष्ठ वाह की गति अधिक हो जाती हैं जिससे अपरदन बढ़ जाता है और नदियों की तली में अधिक मात्रा में मलवे का जमाव होने लगता है। इससे नदीµतली की ऊँचाई बढ़ जाती है। नदियों में क्रमशः जलराशि समंजन की क्षमता कम होती जाती है। दक्षिण-पूर्वी नेपाल में नदी की तली में 15-30 सेे.मी. वार्षिक दर से वृद्धि हो रही है। बिहार में कोसी नदी की तली वहाँ के बाढ़ के मैदान से भी ऊँची हो गई है। इसी प्रकार से नदियों की तली की ऊँचाई बढ़ने से बाढ़ आने की स्थिति के उदाहरण गंगा और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में भी काफी देखने को मिलते हैं।
बाढ़ नियंत्रण
(5) बाढ़ की भविष्यवाणी (पूर्वानुमान)
बाढ़ के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करने से भारी तबाही को रोका जा सकता है। केन्द्रीय जलआयोग ;ब्मदजतंस ॅंजमत ब्वउउपेेपवदए ब्ॅब्द्ध ने बाढ़ का पूर्वानुमान लगाने तथा चेतावनी देने की एक देषव्यापी प्रणाली स्थापित की है। केन्द्रीय जल आयोग 62 नदी थालों तथा उप थालों में स्थित 157 केन्द्रों द्वारा बाढ़ के पूर्वानुमानों की घोषणा करता है। इन केन्द्रों में से 109 केन्द्र गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी प्रणालियों पर कार्यरत हैं। पष्चिम में प्रवाहित नदियों के लिए 15 केन्द्र कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार कृष्णा नदी के लिए 8, महानदी के लिए 3, गोदावरी के 13 तथा पूर्व में प्रवाहित नदियों के लिए 9 केन्द्र स्थापित किये गये हैं। इनके अलावा 28 ऐसे केंद्र प्रमुख बांधों/भंडारकों पर स्थापित किये गये हैं। इनमें से निम्नलिखित केन्द्र प्रमुख हैं –
1ण् गुवाहाटी- ब्रह्मपुत्र एवं उसकी सहायक नदियों तथा बरार नदी के लिए।
2ण् जलपाइगुड़ी- तिस्ता नदी।
3ण् वाराणसी-आजमाबाद- उत्तर प्रदेष में गंगा और सहायक नदियाँ।
4ण् बक्सर, पटना- बिहार मंे गंगा तथा सहायक नदियाँ।
5ण् भुवनेष्वर, उड़ीसा में स्वर्णरेखा, बुरहाबलांग, वैतरणी और ब्राह्मणी नदियाँ।
6ण् भड़ौंच- नर्मदा नदी की बाढ़ों के लिए।
7ण् दिल्ली- दिल्ली तक यमुना एवं साहिबी नदी।
8ण् हैदराबाद- गोदावरी एवं सहायक नदियाँ।
बाढ़ क्षेत्रा कटिबन्धन
बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के कटिबन्धन र्;वदपदहद्ध के लिए भूमि उपयोग के सम्बन्ध में बाढ़ के रास्तों की पहचान आवष्यक है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के विस्तृत मानचित्रण आवष्यक हैं, जो बाढ़ चक्रों के लम्बे अध्ययन के उपरान्त सम्भव है। बाढ़ क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों के विनिमय जैसे गैर संरचनात्मक उपायों को अपनाना आवष्यक है क्योंकि केवल तटबन्धों के निर्माण से ही बाढ़ से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस आवष्यकता के मद्देनजर 1975 में एक माडल विधेयक लागू करने के लिए सभी राज्यों को अनुदेष दिये गये, जिसके तहत् मणिपुर व राजस्थान ने सर्वप्रथम उपयुक्त कानून लागू किये हैं।
सन् 1972 में गंगा-बाढ़ नियंत्रण आयोग की स्थापना की गई जिसका प्रमुख उद्देष्य गंगा नदी थाले की विभिन्न नदी प्रणालियों की बाढ़ के नियंत्रण के लिए विस्तृत परियोजनाएं बनाना था। आयोग ने सोन, पुनपुन, बूढ़ी गण्डक, बागमती, मयूराक्षी तथा जालंगी नदियांे के बारे में विस्तृत बाढ़ प्रबन्ध परियोजनाओं को यथा शीध्र मंजूरी दिलाने के पक्ष में कदम उठाये हैं।
भारत के कुल बाढ़ प्रभावित क्षेत्र (400 लाख हेक्टेयर) में से 320 लाख हेक्टेयर क्षेत्र ऐसा है, जिसे बाढ़ से बचाया जा सकता है। मार्च 2000 तक तटबन्धों के निर्माण हेतु निकाली नालियों के निर्माण, नगर सुरक्षा कार्योंं और गांवों को ऊँचाई पर बसाने जैसे उपायों के जरिये 157.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को बाढ़ से समुचित संरक्षण प्रदान किया गया है जिस पर कुल 7239.45 करोड़ रुपए व्यय हुए हैं। मार्च 2000 तक 33630 किलोमीटर से अधिक नए तटबन्ध और 37904 किलोमीटर निकासी नालियों का निर्माण किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ गांवों सहित 2337 शहरों को संरक्षण प्रदान किया गया तथा 4713 गाँवों को बाढ़ के स्तर से ऊंचा उठाया गया है। बाढ़ प्रबन्धन यद्यपि राज्यों का मूल विषय है, फिर भी केन्द्र सरकार बाढ़ की आषंका वाले राज्यों को कुछ इस प्रकार की विषेष केन्द्रीय सहायताएँ उपलब्ध कराती है जिनका स्वरूप तकनीकी एवं विकासात्मक है। केन्द्रीय जल आयोग देष में प्रमुख बांधों पर नदी स्तर के 166 भविष्यवाणी केन्द्रों और 25 अंतर्वाह भविष्यवाणी केन्द्रों के माध्यम से अन्तर्राज्यीय नदियों के बारे में बाढ़ सम्बन्धी पूर्वानुमानों की जानकारी देता है।
नदियों के किनारांे पर तटबन्धों तथा बाँधों का निर्माण
नदियों के किनारे तटबन्धों का निर्माण करके बाढ़ के समय जलाधिक्य की स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है। पूर्वोत्तर भारत, गंगा का मैदान तथा बांग्लादेष में इस प्रकार के अभियांत्रिक कार्य किये गये हैं।
भारत में 1954 से 1979 के दौरान वृहद् स्तर पर बाढ़ प्रबन्ध गतिविधियों के तहत् 12265 किलोमीटर में तटबन्धों का निर्माण किया गया, इनमें 246 किलोमीटर कोसी के तट पर, 249 किलोमीटर बागमती के सहारे 208 किलोमीटर महानन्दा तथा 317 किलोमीटर बूढ़ी गण्डक के सहारे किया गया।
जल के आयतन को कम करके ;त्मकनबपदह सिववक चमंो इल अवसनउम तमकनबजपवदद्ध – इसके लिए नवीन इंजीनियरी तकनीक जैसे संग्रह बाँध ;ैजवतंहम तमेमतअवपतेद्ध एवं संचयन बेसिन कमजमदजपवद इंेपदे इत्यादि के निर्माण से कम किया जा सकता है। ये संग्रह बाँध बाढ़ के समय काफी मात्रा में जल संचित कर नदियों में जल की मात्रा को कम कर देते हैं। दामोदर घाटी प्रोजेक्ट के 5 बाँध मैथन,पंचेत, कोनोर, तिलैया एवं अइयर बांधों के निर्माण द्वारा इसी प्रकार के प्रबंधन का प्रयास किया गया है। छोटेµछोटे तालाब, टंकी, गढ़ों द्वारा भी बाढ़ को नियंत्रित किया जा सकता है।
जलमग्न होने से तटों का रक्षण
तटबंधों ;मउइंदाउमदजद्ध का निर्माण विशेष रूप से किया जाता है, जिससे बाढ़ की स्थिति में नदियों को पाटों के भीतर ही रखा जा सके।
परंतु इससे कुछ समस्याएं भी उत्पन्न हो जाती हैं; जैसे-
1ण् दूसरे क्षेत्रों में बाढ़ आने की संभावना बढ़ जाती है।
2ण् तब तटबंध क्षेत्रों में भी बाढ़ आ सकती है (जब अधिक मात्रा में मलबा उसके तली में एकत्रित हो जाता है)।
तटबंधक्षेत्रों में जलाक्रांत की स्थिति के कारण अनेक प्रकार के रोग मलेरिया, कालाजार, के फैलने की संभावना होती ळें
नदियों के किनारांे पर तटबन्धों तथा बाँधों का निर्माण
पिछले 5 दिन से उत्तर बिहार में बाढ़ की वजह से अब तक 33 लोगों की मौत हो चुकी है। 12 जिले के 26.79 लाख लोग इस बाढ़ से प्रभावित हैं। 1.13 लाख लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं। जानकार मानते हैं कि बाढ़ के इस खतरे को बढ़ाने में बाढ़ को रोकने के लिए बने उन तटबंधों की बड़ी भूमिका है, जो अब तक एक दर्जन से अधिक स्थल पर टूट चुके हैं।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की वेबसाइट पर बाढ़ नियंत्रण वाले खंड में लिखा है कि इस काम के लिए अब तक वे मुख्यतः नदियों के दोनों किनारे पर तटबंध बनाते हैं और उनका रखरखाव करते हैं। इस राज्य हर साल आने वाली बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए सरकार इसी उपाय को सबसे कारगर मानती है। मगर आंकड़े यह बताते हैं कि राज्य की 13 प्रमुख नदियों पर बने 3745.96 किमी लंबे इन तटबंधों ने बाढ़ की विभीषिका को घटाने के बदले बढ़ाने का ही काम किया है। आजादी के तत्काल बाद 1954 में जब राज्य में सिर्फ 160 किमी लंबे तटबंध थे तब राज्य की 25 लाख हेक्टेयर जमीन ही बाढ़ प्रभावित थी, अब बाढ़ प्रभावित जमीन का क्षेत्रफल सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 68.8 लाख हेक्टेयर और गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 72.95 लाख हेक्टेयर पहुंच गया है। नदियों के जानकार और विशेषज्ञ तटबंधों के जरिये बाढ़ नियंत्रण की तकनीक को राज्य के पर्यावरण के लिए आत्मघाती और भ्रष्टाचार का गढ़ मानते हैं। मगर राज्य सरकार इन सुझावों की अनदेखी कर लगातार तटबंधों का आकार बढ़ाती जा रही है।
कोसी क्षेत्र में तटबंधों से सटे कुछ इलाक़े तो ऐसे हैं, जहां हर साल बाढ़ आती है. लाखों के जान-माल का नुक़सान होता है. ऐसा लगता है मानो बाढ़ यहां के लोगों की नियति बन चुकी हो.
बिहार में बाढ़ कब से आ रही है, कहना संभव नहीं है. लेकिन भारत के आज़ाद होने के बाद पहली बार 1953-54 में बाढ़ को रोकने के लिए एक परियोजना शुरू की गई. नाम दिया गया ‘कोसी परियोजना.‘1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू द्वारा शुरू हुई इस परियोजना के शिलान्यास के समय यह कहा गया था कि अगले 15 सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर क़ाबू पा लिया जाएगा.
देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने साल 1955 में कोसी परियोजना के शिलान्यास कार्यक्रम के दौरान सुपौल के बैरिया गांव में सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि, “मेरी एक आंख कोसी पर रहेगी और दूसरी आंख बाक़ी हिन्दुस्तान पर.”
1965 में लाल बहादुर शास्त्री द्वारा कोसी बराज का उद्घाटन किया गया. बैराज बना कर नेपाल से आने वाली सप्तकोशी के प्रवाहों को एक कर दिया गया और बिहार में तटबंध बनाकर नदियों को मोड़ दिया गया
परियोजना के तहत समूचे कोसी क्षेत्र में नहरों को बनाकर सिंचाई की व्यवस्था की गई. कटैया में एक पनबिजली केंद्र भी स्थापित हुआ जिसकी क्षमता 19 मेगावॉट बिजली पैदा करने की है.
नदियों पर तटबंध बनाकर उन्हें काबू में लाने की कोशिश करना, एक तरह से उसे बॉक्सिंग के लिए ललकारना है। इसमें जीत हमेशा नदियों की होती है। नदी अपने साथ हुए किसी भी दुर्व्यवहार का बदला लिये बगैर नहीं छोड़ती। अंग्रेजों ने अपने अनुभव से सीखा था कि नदियों पर तटबंध बनाना खतरे से खेलना है, इसलिए उन्होंने अमूमन तटबंध नहीं बनाये। बिहार में नदियों को तटबंधों से घेरने की परंपरा आजादी के बाद शुरू हुई। सरकार ने सोचा कि नदियों को घेर कर हम उन्हें काबू में कर लेंगे, मगर आंकड़े गवाह हैं कि बाढ़ और बेकाबू हुई है और नये इलाकों तक पहुंच गयी है।
वे कहते हैं, यह तो एक नुकसान है। दूसरा नुकसान यह है कि हर साल बाढ़ के साथ आने वाली गाद को तटबंध के कारण फैलने का मौका नहीं मिलता, जिससे नदियां लगातार उथली हो रही हैं, वहीं इस घेराबंदी से बड़ी नदियों का छोटी नदियों और चौरों से संपर्क खत्म हो गया है। नदियों का बेसिन उथला होना और इसे फैलने के लिए जगह न मिलना भी नदियों को आक्रामक बना रहा है। नदियों के उथले होने से यह खतरा भी उत्पन्न हो गया कि कहीं नदियां ओवरफ्लो होकर तटबंध को पार न कर जाये, इसलिए इन दिनों सरकार तटबंधों को ऊंचा करने का काम कर रही है।
वे आगे कहते हैं कि इसके बावजूद तटबंधों का टूटना कम नहीं हुआ है, जल संसाधन विभाग की ही रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीस सालों में तटबंधों के टूटने की 374 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं।
तटबंधों की सुरक्षा भी कोई आसान काम नहीं है। हर साल इन 3731 किमी लंबे तटबंधों की सुरक्षा पर सरकार करोड़ों की राशि खर्च करती है। 2018 के नवंबर महीने में बनी तटबंधों की सुरक्षा की 99 योजनाओं के लिए जल संसाधन विभाग ने 522.54 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी थी। 2016 में इनकी सुरक्षा पर 636 करोड़ रुपये व्यय हुए थे। तटबंधों की ऊंचाई बढ़ाने के काम में अलग से धन राशि व्यय हो रही है।
THE CORRUPTION
जब कोसी का पानी तटबंधों को तोड़ने लग गया हो, सभी जगह तटबंधों के पानी ने छू लिया है, तब मरम्मत का काम करने का मतलब क्या है?
अररिया ज़िले के डीएम वैजनाथ प्रसाद कहते हैं, “कोई मतलब नहीं है. अब तो पानी आ गया है. तटबंधों की मरम्मती तो तब की जानी थी जब पानी प्रवेश नहीं कर पाया था. हमारे यहां तटबंधों पर काम नहीं चल रहा है. हम राहत और पुनर्वास के काम पर फोकस किए हैं.”
स्थानीय पत्रकार दिनेश चंद्र झा कहते हैं, “यही तो घोटाला है. जहां तक पानी पहुंच गया है वहां कंक्रीट और बालू के बैग डालकर क्या मतलब है. किसी को कैसे दिखाइएगा कि कितने बैग डाले गए. क्योंकि सब तो पानी के नीचे है. 100 बैग डालकर हज़ार का भी एस्टिमेट बनाएं तो कोई जांच करने वाला नहीं है. अगर कोई जांच करेगा भी तो क्या? कॉन्ट्रैक्टर के लिए यह कहना बड़ा आसान हो जाता है कि मैंने सबकुछ किया था मगर धार सब बहा ले गई. “
इस प्रोजेक्ट का एक मुख्य उद्देश्य यह भी है कि कोसी के पानी को नहरों के ज़रिए निकाल कर सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित की जाए.
इसके लिए दो कैनालों (पूर्वी से पश्चिमी) से वितरणी नहरें निकालनी थी. फिलहाल तो सब जगह पानी ही पानी है क्योंकि बाढ़ आई है. लेकिन स्थानीय निवासी कहते हैं कि वितरणी में अब पानी नहीं आता. कैनाल में तो पानी रहता है लेकिन उन कैनालों से जो छोटी नहरें निकाली गईं थीं, उनपर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया.
कृष्ण नारायण मिश्र पानी में डूबे एक पंपिंग सेट को दिखाते हुए कहते हैं, “अगर वितरणी में पानी ही आता तो पंपिंग सेट लगाने की क्या ज़रूरत पड़ती!”
कोसी परियोजना के अंतर्गत कटैया में जो पनबिजली घर बनाया गया था, उसकी भी हाल बेहाल ही है. कहां तो इसे 19 मेगावॉट बिजली का उत्पादन करना था, वहीं अब उत्पादन तो दूर, इसके मोटर और संयत्र को चालू रखने के लिए बाहर से 20 मेगावॉट बिजली लेनी पड़ती है.
स्थानीय इंजीनियर कहते हैं कि कुछ सालों पहले इसे दोबारा चालू किया गया था. 12 मेगावॉट बिजली का उत्पादन भी होने लगा, लेकिन फिर रख रखाव और मेंटेनेंस नहीं हो पाया.
कोसी परियोजना को लेकर सबसे ख़राब बात यह है कि इसकी नाकामियों पर कोई बात नहीं करना चाहता. अब जबकि बाढ़ से हाहाकार मचा है, अधिकारी सवालों का जवाब देने से बच रहे हैं. अपने ऊपर के अधिकारियों पर थोपने लगे हैं.
लेकिन कृष्ण नारायण मिश्र यह भी कहते हैं कि, “उसके बाद के सालों में मरम्मत, नए निर्माण, बाढ़ राहत और बचाव के नाम पर जम कर पैसे का बंदरबांट हुआ. लगभग हर साल इस मद में फंड पास होता है, एस्टिमेट बनता है, लेकिन काम क्या होता है? यदि तटबंधों का मरम्मत और बाढ़ से निपटने की तैयारियां पहले कर ली जाए तो फिर वे टूटेंगे कैसे?”
सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार अगर पिछले कुछ सालों के दौरान कोसी परियोजना के अंतर्गत बड़े कामों का ज़िक्र करें तो दो योजनाएं बनायी गईं.
पहली योजना बाढ़ राहत और पुनर्वास की थी. जिसके तहत विश्व बैंक से 2004 में ही 220 मिलियन अमरीकी डॉलर का फंड मिला था. उससे तटबंधों के किनारे रहने वाले बाढ़ प्रभावित लोगों के लिए पक्का घर बनाए जाने थे और ज़मीन देनी थी. कुल दो लाख 76 हज़ार लोगों को चिह्नित किया गया था जिनके मकान बनने थे.
बिहार सरकार के योजना विकास विभाग ने इस काम को करने का लक्ष्य 2012 रखा. पहले चरण में कुल 1 लाख 36 हज़ार मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया.
लेकिन 2008 में कुसहा के समीप तटबंध टूटने से त्रासदी आ गई. पहले चरण का काम 2012 तक भी पूरा नहीं हो पाया. पिछले साल यानी 2018 तक काम चलता रहा. लेकिन मकाम बन पाए मात्र 66 हज़ार के क़रीब. पहले चरण के बाद अब उस योजना को बंद कर दिया गया है.
बाक़ी का पैसा क्या हुआ? कृष्ण नारायण मिश्र कहते हैं, “किसी को नहीं पता क्या हुआ पैसा? हां, 2008 की त्रासदी के बाद वीरपुर में कौशिकी भवन का निर्माण किया गया.”