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पानी की भू-राजनीति

तेल के विपरीत पानी का कोई विकल्प नहीं है। पानी धीरे धीरे वैश्विक राजनीति का एक बड़ा हिस्सा बनता जा रहा है। पानी एक नया हथियार है। एक ऐसा हथियार जो दुनिया को तबाह कर सकता है। यह पूरी दुनिया के सामाजिक ताने-बाने को तोड़ सकता है। पानी कमजोर देशों को अपने अधीन करने के लिए ब्लैकमेल करने का एक औजार है। यह दुश्मनों को धमकी देने और बदला लेने का उपाय है।

पानी के एक बड़े स्रोत के तौर पर दुनिया में कोई एक स्थान अगर सबसे ज्यादा प्रभाव जमाने की हालत में है तो वह है तिब्बत का पठार। तिब्बत के पठार का बढ़ता महत्व उसे दुनिया का तीसरा ध्रुव और एशिया का वॉटर टॉवर बना देता है। आज

पानी के बारे में सभी चर्चाओं का केंद्र बिंदु तिब्बत है। तिब्बत का पर्यावरणीय प्रभाव इसी से समझा जा सकता है कि यह एशियाई मानसून को बनाता है। यह उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद सबसे अधिक ग्लेशियरों वाली जगह है। ये ग्लेशियर 10 बड़ी नदी प्रणालियों को पानी देते हैं। ये नदियां अपने निचले इलाकों में कई अरब लोगों को जीवन देती हैं।

दक्षिण एशिया में दुनिया की 22% आबादी रहती है लेकिन उसके पास वैश्विक जल स्रोतों का केवल 8.3 प्रतिशत हिस्सा है। इस इलाके में पानी ने तेल जैसा महत्व हासिल कर लिया है। तेल के लिए भले ही दूसरे ऊर्जा स्रोतों का उपयोग किया जा सकता है, जबकि इसके विपरीत  पानी का कोई विकल्प नहीं है।

इसका मतलब है कि चीन दुनिया के सबसे अधिक जल संसाधनों पर नियंत्रण रखता है। चीन तिब्बत से निकलने वाली 10 बड़ी नदी प्रणालियों के साथ जो कुछ भी करेगा, उसका सीधा असर दुनिया की कुल जनसंख्या के 47% लोगों पर पड़ेगा। इस तरह तिब्बत के लोगों की कोई भी समस्या पूरे एशिया के समस्या बन जाती है।

चीन पूरे तिब्बत में बांध बनाने के अभियानों में लग गया है।  बांध बनाने और नदियों को  दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर मोड़ने के पीछे चीन की असली मंशा क्या है। ऐसे कामों का इन नदियों के निचले बहाव में रहने वाले देशों की जनता पर क्या असर होगा। 2005 में प्रकाशित “तिब्बत का पानी चीन को बचाएगा” शीर्षक वाले दस्तावेज से चीन के इरादों के बारे में बेचैनी फैलनी शुरू हुई। भले ही यह आधिकारिक नीति बयान नहीं था। फिर भी इसके बड़े पैमाने पर प्रसार ने भारत को अपनी आंखें खोलने के लिए काफी सामान मुहैया कराया।

तिब्बत से निकलने वाली नदियों के पानी का मनमाना उपयोग करने की चीन की योजना है। इसने तिब्बत से निकलने वाली नदियों के निचले इलाकों के देशों में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। इसके साथ ही एशिया के कई देशों में जल साझेदारी विवाद उभर रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच या चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के बीच पानी को लेकर पैदा विवाद आगे जाकर बड़ी चिंता बनेगा।

अगर चीन ने तिब्बत की अधिकांश नदियों के पानी को मोड़ दिया या रोक लिया तो एशिया के अधिकांश देशों सूखाग्रस्त हो जाएंगे। एशिया के लोग अब लंबे समय तक तिब्बत के लोगों की समस्या को केवल तिब्बती लोगों की समस्या मानकर छोड़ नहीं सकते हैं। नदियों पर बांध बनाकर उनके बहाव को नियंत्रित करना या उनके पानी को मोड़ना, नदियों की तलहटी में बहुमूल्य खनिजों की खुदाई को बढ़ावा देगा। इसके कारण निचले इलाकों में नदियों का पानी बहुत ज्यादा प्रदूषित हो जाएगा। तिब्बत एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सभी एशियाई देशों को मिलकर चीन पर दबाव डालना चाहिए।

चीन ने पहले ही पानी को खतरनाक और विध्वंसक हथियार की तरह उपयोग करना शुरू कर दिया है। उसका एक कार्य नदी घाटी में विस्फोट से एक अस्थाई बांध बनाना और फिर जब उसमें पानी जमा हो जाए तो उसे तोड़ देना है। जिससे निचले इलाकों में बाढ़ से भयानक नुकसान हो। इसका दोष भी उस पर नहीं लगाया जा सकता।

चीन में बांध के बनना इसलिये भी चिंता का विषय है क्योंकि पानी को लेकर उसके साथ द्विपक्षीय संधि भी नहीं है। भारत को चिंता है कि तिब्बत में नदियों पर बांध, भारतीय क्षेत्र में उनके प्रवाह की मात्रा को घटाएंगे। सबसे खतरनाक बात है कि चीन ब्रह्मपुत्र नदी के मार्ग को बदलने का प्रयास कर रहा है। ब्रह्मपुत्र नदी के मार्ग में बदलाव से भारत और बांग्लादेश में भारी समस्याएं पैदा होंगी। चीन का मानना है कि ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने से उसका अरुणाचल प्रदेश पर दावा मजबूत होगा, जो कि अभी भारत का हिस्सा है।

भारत पानी को लेकर बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है। इसमें पनबिजली घर बनाने के लिए बांध निर्माण से लेकर जल साझेदारी तक के विवाद हैं।  उदाहरण के लिए नेपाल में 1200 मेगावाट क्षमता की 2.5 अरब डॉलर लागत वाली बूढ़ी-गंडकी बांध परियोजना को बनाने के लिये चीन इच्छुक है। चीन भारतीय सीमा से लगे पाक अधिकृत कश्मीर में 720 मेगावाट क्षमता की कारोट और एक 1124 मेगावाट क्षमता की कोहाला परियोजना को बना रहा है।

वास्तव में एशिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जो चीन के बांध बनाने या नदी की धारा दक्षिण से उत्तर की ओर मोड़ने पर भारत से ज्यादा प्रभावित होगा। तिब्बत से बहने वाला पानी सीधे या फिर नेपाल से होकर भारत आता है। तिब्बत में चीन नियंत्रित इलाके से होकर भारत की नदियों का आधा पानी आता है।

जल विद्युत परियोजनाएं अभी भारतीय विदेश नीति का बड़ा हिस्सा नहीं बन पाई हैं। भारत को द्विपक्षीय संबंधों का लाभ उठाने के लिए जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा देना चाहिए। उसे सिंधु जल समझौते की समान केवल जल साझेदारी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। भारत की इसी जल नीति के कारण देश में भूजल स्तर घटने की दर पूरी दुनिया में  दूसरे स्थान पर है। अरब प्रायद्वीप के बाद पंजाब, हरियाणा, राजस्थान इलाके में भूजल स्तर सबसे तेजी से गिर रहा है।

पाकिस्तान की नीति सिंधु जल समझौते का उपयोग करके भारत का विरोध करना है। अगर भारत इसमें जरा भी बदलाव करने की कोशिश करता है तो वह बहुत शोरगुल करता है। चीन ने 2017 में भारत से जल संबंधी आंकड़ों की साझेदारी को खत्म कर दिया। इससे असम में बाढ़ के बारे में पहले सूचना मिलना कठिन हो गया।

मोदी सरकार के नए जनशक्ति मंत्रालय को भारत की जल चुनौतियों को नए ढंग से हल करना है। लेकिन संस्थानीकरण और एकीकृत नीति निर्माण के बगैर कोई भी समग्र दृष्टिकोण अपनाना असंभव है।

मोदी सरकार को बिम्सटेक देशों में जल और जल विद्युत उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बहुपक्षीय सहयोग के दिशा में बढ़ना जरूरी है। भारत को बांग्लादेश, बर्मा, नेपाल में एक जलविद्युत कारिडोर बनाना चाहिए। भारत ने पहले ही सीमा पार बिजली व्यापार विनियमन का एक कानून बनाया है। यह पड़ोसी देशों को भारतीय ट्रांसमिशन लाइनों से बिजली बेचने की अनुमति देता है।

जल समृद्ध भूटान, म्यांमार और नेपाल में अत्यधिक पानी व्यर्थ बह जाता है। जिससे बिजली बनाई जा सकती है। नेपाल भारत से बिजली आयात करता है। भारत और भूटान के बीच बढ़ते संबंधों का एक बड़ा कारण वहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट भी हैं। भूटान वहां से बिजली भारत को निर्यात करता है। जिससे साफ है कि दुनिया का एक छोटा सा देश कैसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन सकता है। वर्तमान समय में भारत के सहयोग से भूटान में बड़े पैमाने पर पर्यावरण अनुकूल पनबिजली बनाई जा रही है। एक बांध आधारित परियोजना संकोष नदी पर बनाई जा रही है। इसकी क्षमता 2585 मेगावाट होगी जो भारत में किसी भी बांध से बड़ा है।